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________________ 13 अपने आपको जानें क्यों नहीं कराते? हम इसका कारण जानना चाहते हैं। . सेठ ने कहा--ज्योतिषी ने कहा है, मेरा नौवाँ लड़का मंत्री बनने वाला है। मैं परिवार-नियोजन कैसे करा सकता हूं? __ यह कर्मफल की चेतना बहुत प्रगाढ़ है। आदमी कर्म की चेतना और कर्म फल की चेतना-दोनों में उलझा हुआ है। जो ज्ञान की चेतना है, वहां तक कोई जाता ही नहीं है। व्यक्ति उस तक जाने का उपाय करता ही नहीं है। ज्ञान की चेतना ज्ञान की चेतना में व्यक्ति कब जा सकता है? आचार्य अमृतचन्द्र ने इसकी बहुत सुन्दर मीमांसा की है भावयेद् भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया। तावद् यावद् पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते।। तब तक अविच्छिन्न धारा से भेद-विज्ञान की भावना करनी चाहिए जब तक ज्ञान पदार्थ-चेतना से च्युत होकर ज्ञान में प्रतिष्ठित न हो जाए। आत्मा अलग है और शरीर अलग है, इसके उच्चारण मात्र से काम नहीं बनता। यदि यह अनुभूति हो जाए-मैं अलग हूं और शरीर अलग है, तो मानना चाहिए कि ज्ञान-चेतना का द्वार उद्घाटित हो चुका है। दशवैकालिक सत्र में एक उल्लेख है-मनि पहले विवाहित था और स्त्री को छोड़कर साधु बन गया। यदि उसके मन में अपनी स्त्री के प्रति राग जाग जाए तो क्या करना चाहिए? उसका पहला सूत्र है- भेद-विज्ञान। राग के जागने पर मनि सोचे-वह मेरी नहीं है और मैं उसका नहीं हैं। इसका अभ्यास करने से उसके प्रति जो राग है, वह राग समाप्त होता है। यदि यह संकल्प शब्द के उच्चारण तक सीमित रहा, अनुभूति में नहीं बदला तो परिणाम विपरीत भी आ सकता है। एक मनि ने ऐसा ही उपक्रम किया था। उसे कहना था-मैं उसका नहीं हैं और वह मेरी नहीं है किन्तु राग में वह बोलता चला गया-वह मेरी है और मैं उसका हं। यही है अध्यात्म कोरे शब्द में आदमी उलझ जाता है। यह अनुभूति जाग जाए-वह मेरी नहीं है और मैं उसका नहीं हं तो रागात्मक चेतना में परिवर्तन हो सकता है। यह भेद-विज्ञान का सूत्र बड़ा कारगर हो सकता है। यह भेद-विज्ञान की धारा अविच्छिन्न बन जाए, निरन्तर यह आत्मानुभूति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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