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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा जाग जाए-यह शरीर मेरा नहीं है, मैं इसका नहीं हूं, यह पदार्थ मेरा नहीं है और मैं इसका नहीं हं, मकान मेरा नहीं है और मैं इसका नहीं हैं। मकान रह जाएगा और आदमी चला जाएगा। शरीर शरीर है। शरीर रह जाएगा और आदमी चला जाएगा। इस सचाई का अनुभव करना भेद-विज्ञान है। जब यह धारा अविच्छिन्न बन जाएगी तब हमारा ज्ञान पदार्थ से च्यत होकर ज्ञान में ही प्रतिष्ठित हो जाएगा। उस स्थिति में ज्ञान कोरा ज्ञान रहेगा, न राग की चेतना रहेगी और न द्वेष की चेतना रहेगी। और यही है अध्यात्म। अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है-भीतर जाना किन्तु उसका तात्पर्यार्थ है-कोरा शुद्ध ज्ञान होना, पदार्थ ज्ञान का छूट जाना, कर्म की चेतना और कर्म फल की चेतना का छूट जाना।
अत्यंत भावयित्वा विरतमविरतं कर्मणस्तत्फलाच्च, प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसंचेतनायाः। पूर्ण कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचेतनां स्वां,
सानंदं नाटयंतः प्रशमरसमितः सर्वकालं पिबंतु।। आचार्य कुन्दकुन्द का प्रतिपाद्य : पहला निष्कर्ष
सुकरात को मृत्यु-दण्ड के समय कहा गया-तुम सत्य का प्रचार करना छोड़ दो, तुम्हें माफ कर दिया जाएगा। सकरात ने कहा-मैं सत्य को छोड़कर जीना नहीं चाहता। मैं मृत्यु को वरण करना पसंद करूंगा, सत्य को नहीं छोडूंगा। यह निश्चय की बात है, भेद-विज्ञान की बात है किंत उसके साथ व्यवहार भी है। उनके शिष्यों ने उनको भगाने की सारी व्यवस्था कर ली। सकरात के पास जाकर शिष्य बोले-हमने सारी व्यवस्था करली है। हम आपको जेल से भगा कर ले जाना चाहते हैं।
उन्होंने कहा-मैं मरना पसंद करूंगा पर नागरिक-कर्तव्यों से विमुख होना पसंद नहीं करूंगा। यह है व्यवहार।
न सत्य को छोड़ना और न व्यवहार को छोड़ना-यह दृष्टिकोण सम्यग्दृष्टि है। आचार्य कुन्दकुन्द के प्रतिपाद्य का पहला निष्कर्ष है-सम्यग् दृष्टिकोण का विकास, अध्यात्म का विकास। अध्यात्म के विकास के बिना सम्यग्दृष्टि का विकास नहीं होता और सम्यग्दृष्टि के विकास के बिना अध्यात्म का विकास नहीं होता।
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