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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा परम : अपरम
अपराविद्या है जीवन की यात्रा के लिए और पराविद्या है सचाई को जानने के लिए। जैन दर्शन में दो शब्द आते हैं- अपरम और परम। आचारांग सूत्र में परम शब्द का प्रयोग मिलता है। आचार्य कन्दकन्द ने भी अपरम और परम शब्दों का बहुत प्रयोग किया है। दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं-परम में स्थित और अपरम में स्थित। परम में स्थित होना, परम को देखना वास्तविक सत्य को देखना है। अपरम में रह जाना नीचे रह जाना है, व्यवहार के धरातल पर स्थित होना है। परम का एक अर्थ है निर्वाण। उसका एक अर्थ है परमार्थ। उसका एक नया अर्थ है पारिणामिक भाव। पांच भाव हैं। उनमें एक भाव हैपारिणामिक भाव। एक भाव है औदयिक। कर्म का उदय होता है और उसके उदय से हमारी अनेक अवस्थाएं बनती हैं। कर्मजनित अवस्था
औदयिक भाव है। एक है क्षायोपशमिक भाव। जब कर्म का उदय कम होता है, प्रकृति क्षीण होती है तब क्षयोपशम का भाव विद्यमान होता है। उससे थोड़ा ज्ञान प्रगट होता है, चेतना जागती है। हमारी ज्ञान की चेतना जागती है, दर्शन की चेतना जागती है। हमारा अस्तित्व : पारिणामिक भाव
औदयिक भाव और क्षायोपशमिक भाव-ये दोनों कर्म से जुड़े हुए हैं। औदयिक भाव भी कर्म से जड़ा हआ है, क्षायोपशमिक भाव भी कर्म से जुड़ा हुआ है। पारिणामिक भाव ऐसा भाव है, जहां कर्म का कोई संबंध नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है। पारिणामिक भाव हमारा अस्तित्व है, यानी मैं हूं, मेरी आत्मा है। अगर औदयिक भाव होता तो आत्मा बिलकुल दब जाती। भीतर में पारिणामिक भाव की एक आग जल रही है, एक ज्योति जल रही है। वह कभी अस्तित्व को इधर-उधर नहीं होने देती। हमारा अस्तित्व इसी आधार पर टिका हुआ है, अन्यथा कर्म के परमाणुओं का सघन आक्रमण आत्मा को कभी समाप्त कर देता। इतना लम्बा काल बीत गया। हजारों-हजारों वर्ष, लाखों-लाखों वर्ष बीत गए। कहा जा सकता है-अनन्त काल बीत गया कर्म के थपेड़े सहते-सहते, उससे संघर्ष करते-करते। इतना काल बीत जाने पर भी अस्तित्व का दीप बुझा नहीं। अस्तित्व का दीप क्यों नहीं बुझा? यह अस्तित्व का दीप अप्रकम्प कैसे रहा? थोड़ी-सी हवा चलती है, मिट्टी का दीप बुझ जाता है पर यह अस्तित्व का दीप क्यों नहीं बुझा?
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