________________
अपने आपको जानें निश्चय के साथ व्यवहार
भिखारी चौराहे पर बैठा था। एक व्यक्ति उधर से गुजरा। भिखारी ने कहा-बाबूजी! इस अंधे को एक रुपया दे दो। व्यक्ति ने भिखारी को गौर से देखकर कहा-अरे भाई! तुम्हारी एक आंख तो सही सलामत है। भिखारी ने कहा-कोई बात नहीं, ५० पैसे ही दे दो। एक आंख का पचास पैसा होता है और दोनों आंखों का एक रुपया होता है। यह बड़ी विचित्र बात है।
निश्चय और व्यवहार-दोनों दृष्टियां मिलने से पूर्णता आती है। परिपूर्णता के लिए दोनों को साथ लेकर चलना बहुत जरूरी है। आचार्य कुन्दकन्द ने निश्चय की बात बहुत कही, अध्यात्म को समझने पर बहुत बल दिया किन्तु उन्होंने निश्चय के साथ-साथ व्यवहार को भी बराबर निभाया। उन्होंने व्यवहार को छोड़ा नहीं। निश्चय की आंख है सचाई को जानने के लिए और व्यवहार की आंख है जीवन की यात्रा को चलाने के लिए। जीवन की यात्रा को छोड़कर, व्यवहार को छोड़कर सचाई को पाने की बात आकाशीय उड़ान है। जीवन ही नहीं है तो सचाई मिलेगी कैसे? दोनों बातें साथ-साथ चलती हैं। पराविद्या : अपराविद्या
अध्यात्म एक श्रेष्ठ विद्या है। गीता में कहा गया-सब विद्याओं में श्रेष्ठ विद्या है अध्यात्म विद्या। उपनिषद् में इसे पराविद्या कहा गया है। दो प्रकार की विद्याएं मानी गईं-अपराविद्या और पराविद्या। व्याकरण, काव्य, गणित, शिक्षा, छंद-शास्त्र आदि-आदि लौकिक विद्याएं हैं, अपरा विद्याएं हैं। पराविद्या है आत्मविद्या। पहले एक संतुलन था-अपराविद्या भी पढ़ाई जाती और पराविद्या भी पढ़ाई जाती। उपनिषद् के प्रकरण देखें। कोई भी व्यक्ति पढ़कर आता। गुरु या पिता सबसे पहले पूछते-तुमने क्या पढ़ा? यदि उसे पराविद्या नहीं आती तो कहा जाता-तुम कुछ जानते ही नहीं। जिसको जो जानता है, उसे नहीं जाना तो तमने पढ़ा ही क्या? कितना महत्त्वपूर्ण सत्र है-जो जानता है उसे तू नहीं जानता। जानने वाली आत्मा है, जानने वाली हमारी चेतना है। सारी बातें पढ़ लीं किन्तु उस आत्मा और चेतना को नहीं जाना, जो जानने वाली है, तो कुछ भी नहीं जाना। जो नहीं जानने का था, उसे जान लिया गया और जो जानने का था उसे जाना ही नहीं। ज्ञाता और द्रष्टा को नहीं जाना, केवल ज्ञेय को जान लिया, पदार्थ को जान लिया तो
आंख बंद की बंद ही रह गई, खली ही नहीं। Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org