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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा रूप को ही देखते हैं, केवल बाहर का दर्शन करते हैं और उसी के आधार पर निर्णय ले लेते हैं। बहिर्दर्शन मिथ्यादृष्टि है। उसका परिणाम है - लड़ाई और झगड़ा, कलह और छीना-झपटी, लट-खसोट, हत्या और आतंक। जब तक समाज आत्मदर्शी नहीं बनेगा, अन्तर्दी नहीं बनेगा, भीतर जाकर नहीं देखेगा तब तक हिंसा की इन समस्याओं को कभी रोका नहीं जा सकेगा। ये हिंसा के सहज परिणाम हैं। हिंसा को रोकने का उपाय है अन्तर्दशन और हिंसा को उभारने का उपाय है बाहरी दर्शन। निश्चयनय : व्यवहारनय
अध्यात्म के आचार्यों ने इन सारी समस्याओं को दो शब्दों में समेट लिया-बाहरी दर्शन और अन्तर्दर्शन या आत्मदर्शन। उन्होंने कहायदि समस्या का समाधान चाहते हो तो अन्तर्दर्शन में आओ। समस्याओं को बढ़ाना चाहते हो तो बाहरी दर्शन में जाओ। जटिल है आत्मदर्शन की बात। अगर व्यक्ति अन्तर्दर्शन में जाए तो जीवन-यात्रा की समस्याएं कैसे सुलझे? दोनों ओर जटिल समस्या है। भगवान् महावीर ने निश्चयनय और व्यवहारनय की भाषा में इसका समाधान दिया। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी निश्चयनय और व्यवहारनय के आधार पर इस प्रश्न का समाधान प्रस्तत किया। एक प्रसिद्ध गाथा है निर्यक्ति साहित्य में आचार्य अमृतचंद्र ने समयसार की टीका में भी उसे उद्धत किया है
जइ जिणमयं पवज्जह, मा ववहारणिच्छयं मयह।
ववहारस्स उच्छेये, तित्थुच्छेवो हवई वस्सं।। यदि तुम वीतराग का मार्ग अपनाना चाहते हो. जिनमार्ग अपनाना चाहते हो, अध्यात्म का मार्ग अपनाना चाहते हो तो निश्चय और व्यवहार-दोनों में से किसी को मत छोड़ो। यदि निश्चय चला गया तो सचाई चली जाएगी। यदि व्यवहार चला गया तो तीर्थ चला जाएगा। व्यवहार के बिना तीर्थ, शासन या संगठन नहीं चलता। निश्चय के बिना सचाई नहीं मिलती। सचाई को जानने के लिए निश्चय बहुत जरूरी है। वास्तविकता तक पहुंचना, अध्यात्म में पहुंचना, मूल वस्तु तक जाना और भीतर तक जाना निश्चय के बिना संभव नहीं है। व्यवहार को चलाने के लिए तीर्थ और शासन को चलाने के लिए व्यवहार जरूरी है। केवल निश्चय के आधार पर कोई शासन नहीं चल सकता। अकेला व्यक्ति सत्य की खोज कर सकता है कन्तु वह दूसरों को साथ लेकर चल नहीं सकता। व्यवहार और निश्चय - ये दो आंखे हैं। दोनों से देखना ही पूर्ण देखना है।
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