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अपने आपको जानें वह पदार्थ को काम में लेता है पर उसमें आसक्त नहीं होता, उसमें अटका हुआ नहीं रहता। उसकी चेतना पदार्थ से परे है।
जो व्यक्ति आत्मा को नहीं जानता, वह केवल पदार्थ में ही निमग्न हो जाता है। वह मात्र भौतिक व्यक्ति होता है, भौतिक दृष्टिवाला व्यक्ति होता है। मूल बीमारी है राग
जिसके मन में थोड़ा-सा विराग पैदा हुआ है, जो राग की दुनियां से कटकर विराग की दुनियां में जाना चाहता है, उसके लिए आचार्य कुन्दकुन्द ने अध्यात्म का जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, वह बहुत मूल्यवान् है। वह कवल उसके लिए ही नहीं है, राग की दुनियां में जीने वालों के लिए भी वह बहत मूल्यवान है। आज राग की बहलता ने अनेक मानसिक बीमारियों को जन्म दिया है। आयुर्वेद में अनेक मानसिक बीमारियों का हेतु राग को माना गया है। इसका अर्थ है-मानसिक बीमारी के पीछे काम, भय, क्रोध आदि-आदि हेतु हैं। यह सारा राग का परिवार है। मूलतः बीमारी एक ही है- राग। राग है तो द्वेष है। प्रियता है तो किसी के प्रति अप्रियता का होना भी जरूरी है। अप्रिय हुए बिना किसी के प्रति प्रिय का भाव हो नहीं सकता। राग है तो द्वेष भी आएगा। बीमारी की जड़ है राग राग में जीने वाले व्यक्तियों के लिए अध्यात्म की बात बहुत जरूरी है। अध्यात्म का महत्वपूर्ण सूत्र : भेद-विज्ञान
आचार्य कुन्दकुन्द ने अध्यात्म की व्याख्या में जो सूत्र दिए हैं, वे बहुत महत्वपूर्ण सूत्र हैं। उनमें सबसे पहला सूत्र है-भेद-विज्ञान। आत्मा और शरीर एक नहीं है। आत्मा अलग है, शरीर अलग है। सामान्यतः व्यक्ति मानता है, पदार्थ और मैं - दो नहीं हैं। शरीर और मैं - दो नहीं हैं। व्यक्ति की कितनी मच्र्छा है शरीर के प्रति! हमारा सारा व्यवहार शरीर के आधार पर चलता है। कोई भी व्यक्ति किसी व्यक्ति को देखेगा तो सबसे पहले देखेगा कि उसका कद कैसा है? लंबा है या नाटा? गोरा है या काला? फिर देखेगा-चमड़ी कैसी है? आंखें कैसी हैं? हाथ कैसे हैं? वह इनमें उलझ जाएगा। वह शरीर को ही देखेगा। वह यह नहीं देखेगा, मस्तिष्क कैसा है? यदि मस्तिष्क को देखेगा तो वह अध्यात्म में चला जाएगा, भीतर में चला जाएगा। मस्तिष्क को देखने के लिए भी अध्यात्म की दृष्टि चाहिए। इसीलिए बहुत सारे लोग रंग और
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