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आकर्षण का कारण
तब तक सोने का आकर्षण रहता है जब तक हम बाहर देखते हैं। एक है बाहर की दुनिया और एक है भीतर की दुनियां । भीतरी दुनियां में बाहरी आकर्षण समाप्त हो जाते हैं। बाहरी दुनिया में आत्माभिमुखता का कोई साधन नहीं है, जो बाहर के आकर्षण को समाप्त कर सके । मोह और मूर्च्छा को कम करने का कोई उपाय बाहरी दुनियां में नहीं है। उसे कम करने का एकमात्र उपाय है अपनी आत्मा के भीतर चले जाना । जो व्यक्ति अपनी आत्मा के भीतर गए हैं, उनका बाह्य आकर्षण छूटा है ।
अध्यात्म का महत्त्वपूर्ण शब्द है- सम्यग्दृष्टि । सम्यग् दर्शन की उपलब्धि का सूत्र है आत्माभिमुखी होना । आत्मा को जाने बिना, अध्यात्म में प्रवेश किए बिना कोई भी व्यक्ति सम्यग्दृष्टि नहीं बन सकता। जब तक आत्मा का ज्ञान नहीं होगा, तब तक मिथ्या दृष्टिकोण बना रहेगा।
सम्यग्दृष्टि कौन ?
समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा
समयसार में कहा गया
अप्पाणमयाणतो, अणप्पयं चावि सो अयाणंतो । कह होदि सम्मदिट्ठि, जीवाजीवे अयाणतो . । ।
जो व्यक्ति आत्मा को नहीं जानता, अनात्मा को नहीं जानता, वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है।
दशवैकालिक
सूत्र में भी ऐसा ही एक पद्य मिलता है
जो जीवे वि न याणाइ, अजीवे वि न याणई । जीवाजीवे अयाणतो, कहं सो नाहिइ संजमं ।।
जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, जीव और अजीव - दोनों को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जानेगा ?
जीव और अजीव को न जानना, आत्मा और अनात्मा को न जानना केवल बहिर्मुखी होना है । बहिर्मुखी होने का अर्थ है भौतिक जीवन जीना । भौतिक और आध्यात्मिक व्यक्ति की परिभाषा है - जो व्यक्ति पदार्थ में मूच्छित रहता है, उसका दृष्टिकोण भौतिक होता है और जो व्यक्ति आत्मानुभूति में जीता है, उसका दृष्टिकोण आध्यात्मिक होता है। ऐसा नहीं है कि आध्यात्मिक व्यक्ति पदार्थ का भोग नहीं करता ।
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