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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा
तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु का जीवन कठिनाइयों से भरा हुआ जीवन था। पांच वर्ष तक उन्हें पूरा खाने को भी नहीं मिला। किसी व्यक्ति ने आचार्य भिक्षु से पूछा- महाराज! घी,गुड़ कभी गोचरी में आता है? आचार्य भिक्षु ने उत्तर दिया- पाली के बाजार में बिकता हुआ देखता हूं। जिस व्यक्ति ने मन को इतना साध लिया फिर दुःख कहां से आएगा? श्री मज्जयाचार्य ने उस समय की स्थिति का मार्मिक चित्रण किया है
पांच वर्ष लग पेख, अन्न पिण पूरो ना मिल्यो। बहुलपणे संपेख, घी चौपड़ तो किहां रह्यो।।
वर्तमान भाषा
हजारों-हजारों साधकों को ऐसे कितने दुःख झेलने पड़े हैं लेकिन क्या किसी साधक को कोई दःखी बना पाया? साधनाशील साधक दःख आने पर भी दःखी नहीं बनता। हम इस बात का गहराई से अनुभव करें कि दुःख होना निर्भर करता है हमारी चंचलता पर। ध्यान का प्रयोग इसलिए कराया जाता है कि मन की चंचलता को कम किया जा सके। जितनी मन की चंचलता कम होगी उतना ही शान्ति का जीवन जी सकेंगे। आज की भाषा में कहा जा सकता है- जितना मन का तनाव है उतना ही दुःख है। बहुत सारे लोग अकारण दुःखी बनते हैं। यह डिप्रेशन क्या है? मानसिक अवसाद क्या है? कोई कारण सामने नहीं है फिर भी बैठे-बैठे दःख उतर आता है। जब मन की चंचलता बढ़ती है,
अहेतु ही दुःख उतर आता है। विक्षेप का परिणाम
दःख का प्रमख कारण है विक्षेप। जितना वैमनस्य चलता है. परस्पर अनबन और खटपट चलती है वह विक्षेप के कारण ही चलती है। यदि मन का विक्षेप न हो तो कलह और खटपट की समस्या उत्पन्न ही नहीं हो पाए। किसी व्यक्ति ने कड़वी बात कह दी। यदि मन शान्त है तो वह बात कलह या खटपट की स्थिति पैदा नहीं करेगी। यदि मन चंचल है तो व्यक्ति मन में गांठ बांध लेगा। वह सोचेगा- जब तक मैं इसका बदला नहीं ले लूंगा तब तक चैन से नहीं बैठेगा। इस दौर्मनस्यता कारण है मन की चंचलता।
शरीर की चंचलता भी मन की चंचलता से जड़ी हई है। शरीर की चंचलता का मन की चंचलता के साथ गहरा संबंध है। श्वास-प्रश्वास
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