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________________ अपने भाग्य की डोर अपने हाथ में 163 अध्यात्मविदों ने कहा - द:ख का मल है चंचलता। महर्षि पतंजलि ने भी इसी सचाई को अभिव्यक्ति दी- दःखदौर्मनस्यअंगमेजयत्व श्वास-प्रश्वासाः विक्षेपसहभुवः। मन की चंचलता के साथ इतनी सारी स्थितियां जड़ी हई हैं। यदि चंचलता नहीं है तो दःख का अनभव नहीं होगा। व्यक्ति द:ख की स्थिति से द:खी नहीं होता किन्त दःख का पता चलने पर द:खी होता है। जिसका मन शान्त हो गया, जिसकी चंचलता अत्यल्प हो गई, वह दःख का पता चलने पर भी द:खी नहीं होता। इस स्थिति में व्यक्ति घटना को जान लेता है, भोगता नहीं। वह दुःख की अनुभूति से परे चला जाता है। असाधारण घटना : असाधारण सहिष्णुता सरदारशहर के एक संभ्रांत नागरिक हए हैं श्री समेरमलजी दगड। उनके यवा पत्र का आकस्मिक देहावसान हो गया। वह पत्र भी ऐसा था, जो किसी भाग्यवान् को ही मिलता है। उसके निधन पर पूरा शहर रोया, हजारों लोगों की आंखें नम हो गई। परे समाज के उत्थान की बात सोचने वाले व्यक्ति का चले जाना साधारण घटना नहीं थी। अपने ऐसे युवा पुत्र की मृत्यु के क्षणों में भी पिता की आंखों में आंसू नहीं थे। लोगों ने कहा- सेठ साहब! आपका होनहार लड़का चला गया। श्री समेरमलजी दगड़ बोले- भाई! इतना ही योग था। आने का नियम है तो जाने का भी नियम है। वह आया था तब मुझे पूछकर नहीं आया था और गया तब भी बिना कहे ही चला गया। सामान्य व्यक्ति कह सकता है- वह कैसा पिता, पत्र की मृत्य हो जाने पर भी जिसकी आंखों में आंस न हो। हम इसके कारण की खोज करें। दुःख की भयंकर स्थिति होने पर भी दःख का अनुभव क्यों नहीं हआ? कारण यही है- मन की चंचलता इतनी कम हो गई, मन इतना शान्त हो गया कि घटना, नियम और सचाई को जान लिया किन्तु उसे भोगा नहीं। जितना विक्षेप : उतना दुःख यह निश्चित है- जितना जितना मन का विक्षेप ज्यादा होगा उतना उतना दुःख ज्यादा होगा। जितना जितना मन का विक्षेप कम होगा उतना उतना दुःख कम होगा। हम इस धारणा को बदलें कि दुविधा य दुःख की स्थिति होने मात्र से दुःख होता है। वस्तुतः दुःख होता है मन की चंचलता से। जितनी चंचलता है उतना दुःख है। यदि चंचलता नहीं है तो दुःख भी नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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