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अपने भाग्य की डोर अपने हाथ में
165 का संबंध भी चंचलता के साथ जुड़ा हुआ है। यदि मन चंचल है तो श्वास-प्रश्वास की संख्या बढ़ती चली जाएगी। आज एक अमेरिकन और यूरोपियन व्यक्ति सामान्यतः पच्चीस-तीस श्वास लेता है। इसका कारण चंचलता का ज्यादा होना है। समस्या मुक्ति का सूत्र
समस्या से मुक्ति का सूत्र है- चंचलता में कमी आए। समस्या यह है- हम चंचलता को मिटाने का प्रयत्न नहीं करते, समस्या के इस भीतरी कारण पर ध्यान नहीं देते। हमारा सारा ध्यान बाहरी निमित्तों को हटाने में लगा हुआ है। हमारी शक्ति निमित्तों को दूर करने में लगी हुई है। जब तक व्यक्ति ध्यान की अवस्था में नहीं जाएगा, अपने भीतर में नहीं झांकेगा तब तक उसका ध्यान केवल बाहर ही बाहर अटका रहेगा। ध्यान को जीवन का दर्शन कहा गया है। वह इसलिए किया जाता है कि सारी धारणाएं बदल जाएं। कोई घटना घटे तो हमारा चिन्तन बनेइसमें मेरा अपना क्या है? मेरी भूल कहां है? मैं क्या कर सकता हं? यदि हमारा चिंतन इस दिशा में प्रवाहित हो तो समस्या की गंभीरता स्वतः ही कम हो जाए। कठिनाई यह है कि हमारा दृष्टिकोण बदला नहीं है। हम स्वयं का दृष्टिकोण नहीं बदलते, दूसरों का दृष्टिकोण बदलना चाहते हैं। इससे हमारी आध्यात्मिक दृष्टि नहीं जागती। सबसे बड़ी बीमारी है केवल पर ही पर को देखना। स्व को नहीं देखना। जब तक स्व को देखने का दृष्टिकोण विकसित नहीं होगा तब तक मानसिक एवं भावात्मक स्वास्थ्य का सूत्र उपलब्ध नहीं होगा। आचार्य कन्दकन्द ने स्व दर्शन का जो महत्त्व प्रतिपादित किया है, उसे स्व दर्शन की साधना के प्रति समर्पित होकर ही समझा जा सकता है, स्व दर्शन की साधना का अर्थ है अपने भाग्य की डोर को अपने हाथ में थाम लेना, दःख और समस्या की मूल जड़ पर प्रहार करना।
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