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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा ज्ञान और अज्ञान। वह अज्ञान, जो राग, द्वेष और मोह से जुड़ा होता है, हमारा मिथ्या आचरण बनता है। वह ज्ञान, जो राग, द्वेष और मोह से पृथक् होता है, हमारा सम्यग् आचरण बनता है। सम्यग् आचरण के लिये ज्ञान और दृष्टिकोण का सम्यग् होना अत्यंत अनिवार्य है। उनका सम्यग् होना निर्भर है राग, द्वेष और मोह की कमी पर। ज्ञान भी बंधन का हेतु है । प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि वह कोई बुरा आचरण न करे पर उससे बुरा आचरण हो जाता है। प्रश्न है-ऐसा क्यों होता है? यह एक बड़ा प्रश्न है। आचार्य कन्दकन्द के इसका अच्छा समाधान दिया है। उन्होंने कहा-जघन्य ज्ञान की स्थिति में ज्ञान भी बंधकारक बन जाता है। प्रश्न हो सकता है-अज्ञान बंध का हेतु बन सकता है पर ज्ञान बंध का हेतु कैसे बन सकता है? यदि हम गहराई में जाएं तो यह बात सम्यग प्रतीत होती है। जघन्य ज्ञान और जघन्य चारित्र का मतलब है क्षायोपशमिक ज्ञान और क्षायोपशमिक चारित्र। जब तक क्षायिक ज्ञान और क्षायिक चारित्र नहीं है, वीतराग का चारित्र नहीं है तब तक क्षायोपशमिक ज्ञान और चारित्र की स्थिति बनी रहती है। इस स्थिति में व्यक्ति की भावधारा एक जैसी नहीं रहती, उसका विपरिणमन हो जाता है। जब क्षायिक भाव आता है, क्षायिक ज्ञान और क्षायिक चारित्र आता है, तब एक जैसी परिणाम-धारा प्रवाहित होती है। चैतसिक परिणति के तीन रूप
हमारी चैतसिक परिणति के तीन रूप बनते हैं-वर्धमान, हीयमान और अवस्थित। जब तक ज्ञान जघन्य है, चारित्र जघन्य है तब तक हीयमान और वर्धमान की स्थिति निरन्तर बनी रहती है। हम इसे टाल नहीं सकते। इस स्थिति में अड़चास मिनट तक ही एक जैसी परिणामधारा में रहा जा सकता है। उसके बाद स्थिति बदलने लग जाती है। शायद इसीलिए सामायिक का काल भी अड़चास मिनट का रखा गया है। वास्तव में ध्यान और सामायिक-दो नहीं हैं। सामायिक को क्रियाकाण्ड का रूप दे दिया गया इसलिए ध्यान की बात को अलग से सोचना पड़ता है। ध्यान में भी अड़चास मिनट बाद परिणाम धारा बदल जाती है। जब जब राग की परिणाम धारा आती है, जघन्य ज्ञान होने के कारण बंध होने लग जाता है। यही कारण है कि आरंभिक स्थिति में बार-बार राग-द्वेष के विकल्प आते रहते हैं, बंध होता रहता है। इस
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