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मौलिक मनोवृत्तियां अपेक्षा से जघन्य ज्ञान और जघन्य चारित्र को बंध का हेतु माना गया है। जब-जब बंध होता है, हमारी वृत्तियों को पोषण मिलता है।
हम कर्म सिद्धान्त की दृष्टि से विचार करें। कर्म के जितने बंध, कर्म का जितना अस्तित्व हमारे भीतर है उतनी ही वृत्तियां और संस्कारों के केन्द्र हमारे मस्तिष्क में हैं। कर्म का जो स्पंदन आता है, वह मस्तिष्क को प्रभावित कर देता है, वृत्तियों का निर्माण होता रहता है। उन वृत्तियों को दो मूल वृत्तियों में भी समेटा जा सकता है और अपेक्षा के साथ विस्तार भी किया जा सकता है। परिष्कार का मार्ग
हम राग-द्वेष के परिष्कार के लिए ध्यान करते हैं पर एक साथ इनका परिष्कार करना बड़ा कठिन है। निरन्तर परिष्कार की प्रक्रिया चलती रहे, यह आवश्यक है। हम इस बात को जानते हैं-वृत्तियां हैं, आश्रव हैं, उन्हें पोषण मिल रहा है। उसे कम कैसे करें, बंद कैसे करें? इसका मार्ग है संवर। पोषण मिलने के माध्यम हैं, शरीर, वाणी और मन। हम इन तीनों को बंद करें। हम कायोत्सर्ग करें, इससे शरीर की स्थिरता बढ़ेगी, बंध कम होने लगेगा, वृत्तियों को पोषण मिलना बंद हो जायेगा। हम मौन का अभ्यास करें। वाणी का संयम होगा, वृत्तियों को पोषण देने वाला दूसरा मार्ग बंद हो जायेगा। हम मनोगुप्ति करें, ज्योति केन्द्र पर ध्यान करें। इससे मन एकाग्र होगा, मन का संवरण हो जायेगा। वृत्ति को पोषण देने वाला तीसरा मार्ग भी बंद हो जायेगा। शरीर, वाणी और. मन-इन तीनों रास्तों के बंद होने से वत्तियों को पोषण मिलना बंद हो जाता है, वृत्तियों के स्रोत सूखने लग जाते हैं और उनका परिष्कार घटित हो जाता है।
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