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________________ मौलिक मनोवृत्तियां 133 बंध होता है राग भाव से मौलिक प्रवृत्तियां हैं--जीविताशंसा और मरणाशंसा। हम कर्मशास्त्र की दृष्टि से विचार करें तो वृत्तियां दो ही हैं-राग की वृत्ति और द्वेष की वृत्ति। इनका चाहे जितना विस्तार किया जा सकता है। वृत्ति के अठारह भेद भी किये जा सकते हैं, इससे अधिक भेद भी हो सकते हैं। यह सारा वर्गीकरण अपेक्षा के आधार पर होता है। दूसरी भाषा में कहें तो मूल मनोवृत्तियां दो हैं-प्रियता और अप्रियता की मनोवृत्ति। समयसार में कहा गया-राग से कृत जो भाव है, उसके द्वारा जीव बंध करता है। जो भाव राग आदि से विमुक्त है, वह बंधकारक नहीं है। भावो रागादिजुदो, जीवेण कदो दु बंधगो भणिदो । रागादि विप्पमुक्को, अबंधगो जाणगो णवरि ।। वृत्ति है बंध प्रश्न है-वत्तियां कैसे बनती हैं? एक है आश्रव और एक है बंध। राग और द्वेष की वृत्तियां निर्मित हैं। मोहनीय कर्म उनके साथ में जुड़ा हुआ है, आश्रव से उसे पोषण मिलता रहता है और व्यक्ति बंधता चला जाता है। वास्तव में वृत्ति है बंध और वह है रागात्मक परिणति, द्वेषात्मक परिणति। बंध दो प्रकार का होता है-राग से हुआ बंध और द्वेष से हुआ बंध। आश्रव के कारण इनको निरंतर पोषण मिलता रहता है. संचय होता रहता है, वत्तियां निर्मित होती रहती हैं। हमारे जितने प्रभावित व्यवहार हैं, वे सारे इन वृत्तियों के कारण होते हैं। रागम्हि दोसम्हि य कसायकम्मेस् चेव जे भावा । तेहिं द परिणमतो रागादी बंधदे चेदा ।। प्रवृत्ति की प्रेरणा __ वृत्ति से होती है प्रवृत्ति। यदि राग और द्वेष न हो तो हमारी प्रवृत्तियां कितनी सीमित हो जाएं! एक आदमी बहुत प्रवृत्ति करता है। प्रश्न होता है-उसकी प्रेरणा कहां से आती है? वृत्तियां प्रेरणाएं हैं। उनके आधार पर होती हैं रागात्मक और द्वेषात्मक प्रवृत्तियां। जब जब राग और द्वेष तीव्र बनता है, आदमी की बद्धि बदल जाती है, दिमाग खराब हो जाता है। जब भाव राग, द्वेष और मोह के संपर्क से अज्ञानमय बनता है तब आदमी मिथ्या आचरण करता है। जब उसका भाव राग, द्वेष और मोह से विलग होता है तब आचरण सम्यग होता है। सम्यग चारित्र और मिथ्या चारित्र-इन दोनों के पीछे मल कारण है For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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