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परिवार के साथ कैसे रहें?
95 भी व्यक्ति-चेतना है। स्वार्थ चेतना वाला व्यक्ति केवल अपने लिए सोचता है- मैं सुखी रहूं, मेरा भला हो, मेरा कल्याण हो, मेरा यह हो, मेरा वह हो, मझे सब कछ मिले। अपनी सविधा, अपना सख, अपना स्वार्थ। यह स्वार्थ-चेतना की भावना परिवार में समस्याएं पैदा कर रही हैं। परिवार में जितनी कलह होती है, उसमें यह व्यक्तिपरक स्वार्थ-चेतना मुख्य भूमिका अदा करती है। पारिवारिक विघटन और कलह स्वार्थ के ही कारण होते हैं। वर्तमान समस्या
आज की समस्या क्या है? परिवार की समस्या क्या है? माता-पिता प्रारम्भ से बच्चों को स्वार्थ-चेतना की दिशा में ले जाते हैं। यही उपदेश दिया जाता है- कमाओ और घर भरो। परिग्रह, संग्रह तथा लोभ की वृत्ति पैदा होती है और इसका परिणाम है स्वार्थ-चेतना की प्रबलता। व्यक्ति-चेतना का जो प्रशस्त रूप है अध्यात्म-चेतना का विकास, उस दिशा में कोई प्रयत्न नहीं करते। वे इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं देतेपरिवार को चलाना है, परिवार में रहना है तो एक बच्चे में अध्यात्म के संस्कार भी रहने चाहिए, उसमें आध्यात्मिक विकास भी होना चाहिए। इस स्थिति में अध्यात्म-चेतना नहीं जागती, स्वार्थ-चेतना जागती है। वह ऐसी भ्रांति पैदा करती है कि व्यक्ति सर्वग्रासी-सर्वभक्षी बन जाता है, स्वयं ही सब कुछ हजम करने लग जाता है। संदर्भ : संयुक्त परिवार
हम संयुक्त परिवारों का विश्लेषण करें तो हमारे सामने यह सचाई अधिक स्पष्ट होगी। संयुक्त परिवार में अनेक भाई एक साथ रहते हैं। उनमें कुछ वर्षों तक सब कुछ ठीक चलता है किन्तु बाद में स्वार्थ की चेतना इतनी गहरा जाती है कि प्रत्येक भाई सोचता है- सारा का सारा धन-वैभव मेरे हाथ लग जाए तो अच्छा रहे। हमने देखा है-जिन भाइयों में राम-लक्ष्मण सा प्रेम था, वे भी स्वार्थ-चेतना में ऐसे लिप्त हो गए, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। ऐसा क्यों होता है? जब स्वार्थ-चेतना बहुत प्रबल बन जाती है तब यह स्थिति पैदा होती है। मस्तिष्क सामुदायिक बने
सामदायिक जीवन जीना है तो सामदायिक चेतना का विकास जरूरी है। सामदायिक चेतना का जागरण तब संभव है जब मस्तिष्क सामदायिक बने। मस्तिष्क वैसा नहीं है तो सामदायिक चेतना कभी नहीं जाग पाएगी। सामदायिक चेतना को जगाना है तो व्यक्ति-चेतना का परिष्कार करना होगा। उसका परिष्कार अध्यात्म-चेतना के द्वारा ही संभव है। जब यह चेतना जाग जाएगी- 'मेरा कुछ भी नहीं है', तब स्वार्थ की चेतना हावी नहीं
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