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________________ 94 समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा व्यक्ति-चेतना के भी दो अर्थ हैं। उसका एक अर्थ है अध्यात्म-चेतना, परमार्थ की चेतना और उसका दूसरा अर्थ है, स्वार्थ-चेतना। परमार्थ चेतना है- मैं अकेला हूं, अकेला जन्मा हूं, अकेला सुख दःख भोगता हूं, अकेला ही आया हूं, अकेला ही चले जाना है, मेरी आत्मा अकेली है, कोई साथी संगी नहीं है। यह सारा चिन्तन व्यक्ति-चेतना से उपजता है। वास्तव में सचाई भी यही है- कोई किसी का सख द:ख बांट नहीं सकता। व्यक्ति किसी के प्रति संवेदना प्रकट कर सकता है पर वह किसी के दुःख को बांट नहीं सकता। पीड़ा व्यक्ति-चेतना से जुड़ी हुई सचाई है। वह व्यक्तिगत होती है। व्यक्ति-चेतना को हम एक अर्थ में अध्यात्म-चेतना कह सकते हैं। सुख दुःख, जन्म मरण-ये सारी बातें आत्मा से संबंध रखने वाली हैं। व्यक्ति चेतना आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यक्ति-चेतना का बहुत सुन्दर वर्णन किया है : अहमेक्को खल सद्धो. णिम्ममओ णाणदसणसमग्गो। तम्हि ठिदो तच्चित्तो, सव्वे एदे खयं णेमि।। मैं अकेला हूं, शुद्ध आत्मा हूं, निर्ममत्व हूं, ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूं। अपने इस स्वरूप में स्थित और लीन होकर ही आत्मा आश्रव-क्षय को प्राप्त होता है। मैं अकेला हूं, बिल्कुल शुद्ध आत्मा हूं। मेरा कुछ भी नहीं है। धन, घर, परिवार, सगे-संबंधी, मित्र-कुछ भी मेरा नहीं है। इसका अर्थ है- बाह्य जगत् का अस्वीकार। व्यवहार के जगत् में यह बड़ी अटपटी सी बात लगती है। सारे संबंध व्यवहार के जगत् में जुड़ते हैं। व्यक्ति सोचता है- यह मेरा घर है, मां-बाप मेरे हैं, परिवार, धन-मकान, खेत-जमीन-ये सब मेरे हैं। समाज का मतलब है- मेरापन की भावना। समाज ममत्व की भावना से बनता है। जहां मेरापन की भावना समाप्त होती है वहां व्यक्तिगत चेतना, अध्यात्म चेतना की सीमा प्रारम्भ होती है। व्यक्ति-चेतना का दूसरा रूप सामदायिक चेतना और व्यक्तिगत चेतना- ये दोनों विरोधी बातें हैं। एक है मेरापन से लिप्त जीवन और एक है मेरापन से मुक्त जीवन, जहां न मैं किसी का हूं और न कोई मेरा है, सारे संबंध समाप्त हो जाते हैं। अध्यात्म-चेतना या परमार्थ-चेतना से जीवन का व्यवहार नहीं चलता किन्तु इसके साथ यह सचाई भी जुड़ी हुई है कि यदि यह चेतना नहीं होती है तो जीवन का व्यवहार भी अच्छा नहीं चलता। व्यक्ति-चेतना का दूसरा रूप, जो समाज में विकसित हुआ है, वह है स्वार्थ-चेतना। व्यक्ति-चेतना के दो रूप बन गए। अध्यात्म-चेतना भी व्यक्ति-चेतना है और स्वार्थ-चेतना For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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