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आत्म का स्वरूप / ९७
इस प्रश्न को समाहित करने के लिए आयारों में एक महत्वपूर्ण सूत्र दिया गया है। 'उवमा ण विज्जई' आत्मा को बताने के लिए कोई उपमा नहीं है। उपमा के बिना कैसे उसे बताया जा सकता है?
न्यायशास्त्र में दो प्रकार की व्याप्तियां हैं-बहिर्व्याप्ति, अन्तर व्याप्ति । पक्षीकृत विषय में ही साधन के साथ साध्य की व्याप्ति मिले, अन्यत्र न मिले, वह अन्तर्व्याप्ति होती है। आत्मा में चैतन्य गुण है इसलिए वह है। इसकी व्याप्ति है- 'जहां जहां चैतन्य है, वहां वहां आत्मा है।' यह व्याप्ति समग्र विषय को अपने आपमें समेट लेती है। इसका कोई अन्य समानधर्मा नहीं है इसलिए इसके लिए कोई दृष्टान्त नहीं हो सकता ।
बहिर्व्याप्ति में विषय के सिवाय भी साधन के साथ साध्य की व्याप्ति मिलती है । जैसे- 'जहां जहां धूम है, वहां वहां अग्नि है' इसका दृष्टान्त बन सकता है रसोई घर । वे सारे स्थान इसे सिद्ध करने में सहायक हैं जहां अग्नि जलती है।
आकाश अनन्त है। वह अपने विषय को स्वयं में समग्रता से समेटे हुए है। उसके समान कोई तत्त्व नहीं हैं जिससे उसे बताया जा सके। आकाश की भान्ति आत्मा को किसी भी उपमा से उपमित नहीं किया जा सकता। आत्मा एक अमूर्त सत्ता है इसलिए वह दृष्टि का विषय भी नहीं
आत्मा अपद है। उसके लिए कोई पद नहीं है। 'अपयस्स पयं णत्थि' यह नियम सब पदार्थो पर लागू होता है। इसका कोई अपवाद नहीं है। इससे शब्द और अर्थ का सम्बन्ध फलित होता है।
दर्शन शास्त्र में शब्द और अर्थ के सम्बन्ध का विषय बहुत विवादास्पद रहा है। बौद्ध दर्शन शब्द और अर्थ में एकान्त भेद स्वीकार करता है। वेदान्त प्रणव-ओंकार को ईश्वर का वाचक शब्द मानता है। उसके अनुसार ओंकार प्रथम शब्द है, उससे ही नाद का विस्तार हुआ है। शब्द-ब्रह्म की मान्यता का इसी परिप्रेक्ष्य में जन्म हुआ है।
जैन दर्शन शब्द और अर्थ में भेदाभेद मानता है। आत्मा पदातीत है, उसके लिए कोई पद नहीं है। जैन दर्शन कहता है-आत्मा है पर यह
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