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९६ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
है। उपनिषद में भी नेतिवाद प्रचलित है। नेतिवाद का अर्थ है न इति, न इति । आत्मा यह भी नहीं है वह भी नहीं है । 'अथात आदेशो नेति नेति' यह बृहदारणयक उपनिषद का प्रसिद्ध सूत्र है। ब्रह्मा की तरह आत्मा का स्वरूप भी नेतिवाद की भाषा में बतलाया गया है।
आत्मा दीर्घ-लम्बा नहीं है। हस्व नहीं है, वृत्त-गोल नहीं है। परिमण्डल-वलयाकर नहीं है, त्रिकोण, चतुष्कोण भी नहीं है। उसका कोई संस्थान नहीं है, आकार नहीं है।
वह न कृष्ण है, न नील है, न रक्त है, न पीत है न श्वेत है। वह न सुगंध है, न दुर्गन्ध है। वह न रिक्त है, न कटु है, न कषाय है, न अम्ल है, न मधुर है। वह न कठोर है, न मृदु है, न स्निग्ध है, न रूक्ष है, न गुरु है, न लघु है, न शीत है, न उष्ण है।
वह वर्णातीत, रसातीत, गंधातीत और स्पर्शातीत है। वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान- ये पुद्गल के लक्षण हैं । आत्मा पुद्गल नहीं है। जो दृश्य जगत है, वह पुद्गल है। आत्मा अदृश्य है। जो कुछ भी हमें दिखाई देता है, वह पुद्गल है। मुक्त आत्मा पुद्गल से सर्वथा पृथक् है। इस निरूपण के द्वारा अदृश्यवाद को दृश्यवाद का निषेध कर प्रस्थापित किया गया है।
मुक्त आत्मा शरीर युक्त नहीं है । वह जन्मधर्मा नहीं है। उसके किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होता। संसारी आत्मा के बंध निरन्तर होता रहता है, कर्म पुद्गल चिपकते रहते हैं। मुक्त आत्मा विशुद्ध और निर्लेप होती है। वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुसंक।
यह भी नहीं है, यह भी नहीं है, आखिर आत्मा है क्या? उसका धर्म क्या है? स्वरूप क्या है? उसका कार्य क्या है? इस संदर्भ में उसकी विधायक परिभाषा करते हुए कहा गया-मुक्त आत्मा केवल ज्ञाता है। वह सर्वत: चैतन्यमय है।
ज्ञातृभाव और चैतन्य दोनों अदृश्य हैं, उन्हें कैसे देखा जा सकता है? आत्मा का निषेधात्मक स्वरूप भी अज्ञेय है, विधायक स्वरूप भी ज्ञेय नहीं है। फिर उसे जानने का साधन क्या है?
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