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आत्म का स्वरूप / ९५
स्वरूप संसारी आत्मा से सम्बद्ध है।
मुक्त आत्मा का स्वरूप इससे सर्वथा भिन्न है। मुक्त आत्मा वह है जो अनुसंचरण से अतीत है। भारतीय दर्शन में एक विषय रहा है अज्ञेयवाद। जो ज्ञेय नहीं है, वह अज्ञेय है। उपनिषदों में ब्रह्मा को अज्ञेय कहा गया है। जैन दर्शन में मुक्त आत्मा का जो लक्षण वर्णित है, उसे अज्ञेयत्राद का एक स्वरूप समझा जा सकता है।
मुक्त आत्मा के स्वरूप को बताते हुए आचारांग में कहा गया हैसव्वे सरा णियदंति' जहां से सारे स्वर लौट आते हैं। उपनिषद में इसका संवादी सूत्र है- 'यतो वाचा निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह'। मन और वाणी से अतीत है ब्रह्मा। मन और वाणी की पहुंच से परे है आत्मा।
आत्मा न शब्द गम्य है, न तर्क गम्य है, न मति गम्य है। यह आचारांग का अज्ञेयवाद है।
जगत में दो प्रकार के तत्त्व होते हैं, हेतु गम्य और अहेतु गम्य। आत्मा अहेतुगम्य है, अज्ञेय है। वह न शब्द के द्वारा ज्ञेय है, न तर्क के द्वारा ज्ञेय है और न मति के द्वारा ज्ञेय है।
मुक्त आत्मा के स्वरूप की विस्तृत मीमांसा करते हुए भगवान महावीर ने कहा- वह ओज है। ओज के दो अर्थ हो सकते हैं- अकेला और राग-द्वेष-रहित । प्रस्तुत प्रसंग में प्रथम अर्थ अधिक संगत है। 'पुढो सत्ता' दशवैकालिक सूत्र का यह कथन इसी तथ्य की पुष्टि करता है। प्रत्येक आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है, पृथक् अस्तित्व है। वेदान्त के अनुसार सब आत्माएं स्वतन्त्र नहीं हैं। वे ब्रह्मा में विलीन हो जाती हैं। जैन और सांख्य दर्शन आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करते हैं। ओज' शब्द आत्मा की स्वतन्त्रता का द्योतक है।
मुक्त आत्मा का प्रतिष्ठान नहीं होता, आधार नहीं होता है। आत्मा का प्रतिष्ठान है-शरीर। मुक्त आत्मा शरीर रहित होती है। मुक्त आत्मा क्षेत्रज्ञ होती है। केवल ज्ञाता होती है।
मुक्त आत्मा के लक्षण को एक अलग कोण से भी व्याख्यायित कया गया है। निषेधात्मक दृष्टि से उसके स्वरूप का विवेचन किया गया
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