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आत्मा का स्वरूप
जैन दर्शन आत्मवादी दर्शन है। उसने आत्मा, आत्मा के अस्तित्व के साथ-साथ उसके स्वरूप का भी प्रतिपादन किया है। आयारो सबसे प्राचीन ग्रंथ है। उसमें आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए भगवान महावीर ने कहा
'जो आत्मा है, वह विज्ञाता है।' आत्मा का लक्षण है विज्ञान । 'जिसके द्वारा जानता है, वह आत्मा है । '
आत्मा ज्ञाता है, यह द्रव्याश्रित परिभाषा है । जो ज्ञाता है वह आत्मा है । जो आत्मा है, वह ज्ञाता है। इसमें चेतना और उपयोग का अभेदात्मक कथन है ।
इसका भेदात्मक रूप है जिसके द्वारा जानता है, वह ज्ञाता है । जिसको जाना जाता है, वह आत्मा है । पर्यायनय की अपेक्षा से आत्मा का यह लक्षण अभिव्यंजित है ।
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'तं पडुच्च पडिसंखाए' उस ज्ञान की अपेक्षा से आत्मा का प्रतिसंख्यान होता है, ज्ञान होता है। भेदात्मक परिभाषा में आत्मा साध्य है, उसे जानने का साधन है ज्ञान । अभेदात्मक परिभाषा में विज्ञाता और आत्मा का एकत्व है, ध्याता और ध्येय का एकीभाव है ।
आत्मा का यह स्वरूप अत्यन्त प्राचीन है । 'चैतन्यलक्षणो जीवः, उपयोगलक्षणो जीवः' ये सारे सूत्र इसके फलित हैं। यहां जानने का अर्थ है उपयोग । उपयोग चेतना में होता है। चेतना शक्ति है और उपयोग उसकी प्रवृत्ति है । 'यश्च विज्ञाता पदार्थानां परिच्छेदकः उपयोग: ' विज्ञाताऽवस्था ही उपयोग की अवस्था है। आत्मा का यह
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