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आत्मवाद और पुर्नजन्म/ ९३
अपने अस्तित्व का स्वीकार है। मनुष्य जन्म लेता है, मरता है और पुन: जन्म लेता है। वह मैं हूं- यह पुनर्जन्म की अभिव्यक्ति है। यह प्रत्यभिज्ञा अतीत और वर्तमान का संकलन है। प्रत्यभिज्ञा में अनुभव और स्मृति दोनों है। इससे यह फलित होता है कि मेरा अस्तित्व पहले भी था और वर्तमान में भी है। 'सोऽहं' यानि आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व का स्वीकार, पूर्वजन्म की सत्ता का साक्षात्कार।
जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक संसारी आत्मा के साथ तैजस शरीर एवं कार्मण शरीर निरन्तर रहते हैं। ये दोनों शरीर अनादि हैं. कभी नहीं मरते । एते चान्तरालगता' ये निरन्तर साथ रहने वाले हैं । प्रोटोप्लाज्म की खोज इस सत्य की पुष्टि करती है। __ प्रश्न होता है जो बच्चा पैदा होता है, जीव कहां से आता है? कहीं से नहीं आता। प्रत्येक आत्मा के साथ सूक्ष्म शरीर और चेतना साथ आते हैं। सूक्ष्म-शरीर चेतना का संवाहक है । वह शरीर योग्य पुद्गलों को स्वतः खींच लेता है।
इस समग्र चर्चा का निष्कर्ष हैआत्मा त्रैकालिक है, शाश्वत है।
पूर्वजन्म और पुनर्जन्म, उनकी अभिव्यक्ति के दो कोण हैं । वैज्ञानिकों द्वारा खोजा गया 'प्रोटोप्लाज्म' नामक तत्त्व भारतीय जैन दर्शन में वर्णित सूक्ष्म शरीर है, आत्मा नहीं।
सूक्ष्म शरीर संसारी आत्मा के साथ निरन्तर रहने वाला है और वह नए शरीर के निर्माण का मूल बिन्दु है।
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