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१८ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
आत्मा शब्द भी आरोपित है। प्रत्येक पदार्थ शब्दातीत है। शब्द आत्मा या केसी भी पदार्थ का पर्याय नहीं हो सकता। आत्मा है, यह है, वह है-ये सब हमारे द्वारा आरोपित हैं।
जैन दर्शन इस बात को भी स्वीकार नहीं करता है कि सृष्टि का सारा वस्तार शब्द से हुआ है। आत्मा के साथ शब्द का कोई सम्बन्ध नहीं है। वह अज्ञेय, अदृश्य और अरूपी सत्ता है । शब्द, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श कोई भी उसका पर्याय नहीं है, वाचक नहीं है, स्वरूप नहीं है। वह नेरुपमेय है।
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