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जीव : स्वरूप और लक्षण
जैन दर्शन द्वैतवादी दर्शन है। उसमें जीव और अजीव दोनों की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकृत है-न अजीव से जीव उत्पन्न होता है और न जीव से अजीव। दोनों अनादि अनन्त द्रव्य हैं; दोनों के बीच एक शाश्वत भेदरेखा है-चैतन्य । जीव में चैतन्य होता है, अजीव में नहीं। यह चैतन्य ही जीव की स्वतन्त्र सत्ता का हेतु है।
जगत में दो प्रकार के तत्त्व हैं-अमूर्त और मूर्त । द्रव्य का मूर्तीकरण वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और आकार के द्वारा होता है। परमाणु पुद्गल में । सभी होते हैं, इसलिए वह मूर्त द्रव्य है। जीव में वर्ण आदि नहीं है, इसलिए वह अमूर्त द्रव्य है। ___अमूर्त द्रव्य अदृश्य होता है। जो मूर्त होता है वह सब दृश्य नहीं होता, किन्तु जो दृश्य होता है वह मूर्त होता है। सूक्ष्म परिणति वाला मूर्त द्रव्य दृश्य नहीं होता। दृश्य वही होता है, जिसकी परिणति स्थूल हो जाती है। जीव अमूर्त द्रव्य है, इसलिए वह इन्द्रिय द्वारा दृश्य नहीं है। इन्द्रिय, मन और बुद्धि के द्वारा गम्य भी वह नहीं है। उसका गुण है चैतन्य। वह भी अदृश्य है। वह कार्य के द्वारा जाना जा सकता है; किन्तु इन्द्रिय द्वार। उसका बोध नहीं होता। जीव के अस्तित्व की अस्वीकृति का सबसे बड़ा हेतु है-उसकी अमूर्तता। भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से कहा- जैसे अरणी में अग्नि उत्पन्न होती है, दूध में घी, तिलों से तेल, वैसे ही शरीर से जीव उत्पन्न होता है। इसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। यदि वह स्वतन्त्र होता तो जीव हमारे सामने प्रत्यक्ष होता। इस तर्क के उत्तर में पुत्र बोले--पिता! वह हमारी इन्द्रियों के प्रत्यक्ष नहीं है. इसका कारण उसके
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