________________
१०० / जैन दर्शन के मूल सूत्र
अस्तित्व का न होना नहीं है, किन्तु इसका कारण है उसकी अमूर्तता ।
चैतन्य : एक सूर्य
जीव स्व- परप्रकाशी है । उसमें अपने आपको और वस्तु जगतदोनों को जानने की क्षमता है। उसका चैतन्य साधारणतया आवृतअनावृत अवस्था में रहता है। चैतन्य एक सूर्य है । वह आवरण के बादलों से ढंक जाने पर भी सर्वथा आच्छन्न नहीं होता । आकाश में बादलों का घटाटोप है, सूर्य उससे ढंका हुआ है, फिर भी दिन और रात का विभाग बना रहता है। जीव में विद्यमान ज्ञानरूपी चैतन्य आवरण से पूर्ण आवृत कभी नहीं रहता। उसमें चैतन्य - विकास की कुछ रश्मियां निरन्तर प्रकट रहती हैं । यदि वे प्रकट न हों तो जीव और अजीव में कोई भेदरेखा नहीं खींची जा सकती ।
आवृत - अनावृत चैतन्य में जानने की क्रिया निरन्तर नहीं होती; इसलिए जीव जब जानने का प्रयत्न करता है तब उसका ज्ञान केवल अस्तित्व में रहता है। इस आधार पर जीव की अनुपयोग और उपयोग, इन दो अवस्थाओं का निर्माण होता है
आवृत- अनावृत चैतन्य = अनुपयोग; ज्ञेय का ज्ञान नहीं होता । आवृत - अनावृत चैतन्य = उपयोग; ज्ञेय का ज्ञान होता है ।
विकास का अन्तिम बिन्दु उपलब्ध होने पर, ज्ञान के आवरण का सर्वथा विलय हो जाने पर चैतन्य अनावृत हो जाता है। उस अवस्था में चैतन्य का स्वरूप इस प्रकार बनता है।
अनावृत चैतन्य - सतत उपयोग = ज्ञेय का सतत बोध ।
जीव : अनादि-अनन्त
जीव अनादि और अनन्त है । वह अकृत और अनुत्पन्न है, इसलिए अनादि है । वह अकृत और अविनाशी है, इसलिए अनन्त है। चैतन्य उसका मौलिक गुण या स्वरूप है; इसलिए वह भी अनादि- अनन्त है । अनेकान्त की दृष्टि से प्रत्येक अस्तित्व त्रिरूप होता है । उत्पाद, व्यय और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org