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जीव : स्वरूप और लक्षण / १०१
ध्रौव्य-तीनों समन्वित रूप में द्रव्य के लछण हैं। ध्रौव्य द्रव्य का शाश्वत स्वरूप है। उत्पाद और व्यय-ये दोनों उसके अशाश्वत रूप हैं। प्रत्येक द्रव्य शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता, इस अपेक्षा से वह शाश्वत है। उसका रूपान्तरण होता रहता है, इस अपेक्षा से वह अशाश्वत है। चैतन्य शाश्वत है। आवरण उसका अशाश्वत भाव है। वह पौद्गलिक है, जीव का स्वभाव नहीं है। वह प्रवाह के रूप में आता है और अपनी अवधि पूर्ण कर चला जाता है। उचित उपाय के द्वारा उसका अन्त भी किया जा सकता है। इसे दो रूपों में देखा जा सकता
ज्ञान का आवरण, अनादि-अनन्त (उचित उपाय के अभाव में) ज्ञान का आवरण, अनादि सान्त (उचित उपाय के होने पर)
मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी जीव में पूर्ण अनावरण की अवस्था विकसित नहीं हो सकती। आंशिक अनावरण प्रत्येक जीव में विकसित होता है।
जीव और शरीर
प्रत्येक संसारी जीव के सामान्यतया तीन शरीर होते हैं: (१) औदारिक शरीर (स्थूल शरीर); (२) तैजस शरीर (सूक्ष्म शरीर); (३) कर्म शरीर (सूक्ष्मतर शरीर)।
औदारिक शरीर का जीवन के आरम्भ में निर्माण होता है और जीवन की समाप्ति के साथ उसका वियोग हो जाता है। वह कर्म-शरीर का संवादी शरीर होता है। कर्म-शरीर में चेतना के विकास और अवरोध के जितने केन्द्र होते हैं, वे सब के सब औदारिक शरीर में बन जाते हैं। कर्म शरीर से आने वाले स्पन्दन औदारिक शरीर के केन्द्रों के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं । वे व्यक्ति के दृष्टिकोण, व्यवहार और आचरण को प्रभावित करते
तैजस और कर्म शरीर जीव के साथ निरन्तर जुड़े रहते हैं। मृत्यु के पश्चात और पनर्जन्म से पर्व जो गति होती है उसे अन्तगल गति कटा
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