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१०२ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
जाता है। उस गति में भी वे जीव के साथ रहते हैं, इसलिए उसके स्थूल शरीर का पुनर्निर्माण या पुनर्जन्म होता है।
वैक्रिय और आहारक- ये दोनों शरीर लब्धि या योगज विभूति से उत्पन्न होते हैं। वैक्रिय शरीर के द्वारा नाना रूपों का निर्माण किया जा सकता है। आहारक शरीर के द्वारा विचारों का संप्रेषण किया जा सकता है। कुछ जीवों के वैक्रिय शरीर जन्मगत भी होता है।
प्राण : एक सेतु
जीव और शरीर के बीच प्राण एक सेतु है । शरीर, वचन और मन का उपयोग प्राणशक्ति के द्वारा ही किया जाता है। एक ही प्राणशक्ति कार्य-भेद से दस भागों में विभक्त हो जाती है१. स्पर्शन इन्द्रिय को संचालित करने वाली प्राणशक्ति (स्पर्शनेन्द्रिय
प्राण)। २. रसनेन्द्रिय को संचालित करने वाली प्राणशक्ति (रसनेन्द्रिय
प्राण)। ३. घ्राणेन्द्रिय को संचालित करने वाली प्राणशक्ति (घ्राणेन्द्रिय
प्राण)। ४. चक्षुरिन्द्रिय को संचालति करने वाली प्राणशक्ति (चक्षु-इन्द्रिय
प्राण) ५. श्रोत्रेन्द्रिय को संचालित करने वाली प्राणशक्ति (श्रोत्रेन्द्रिय
प्राण)। ६. शरीर को संचालित करने वाली प्राणशक्ति (शरीर प्राण)। ७. श्वासोच्छ्वास को संचालित करने वाली प्राणशक्ति (श्वासोच्छ्वास
प्राण)। ८. वाणी को संचालित करने वाली प्राणशक्ति (भाषा प्राण)। ९. मन को संचालित करने वाली प्राणशक्ति (मन:प्राण)। १०.जीवन को संचालित करने वाली प्राणशक्ति (आयुष्य प्राण)।
जीवन की सारी प्रवृत्तियां इस प्राण-ऊर्जा के द्वारा सक्रिय होती हैं। इसके आधार पर जीवन और मृत्यु की परिभाषा बनती है। प्राणशक्ति का
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