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________________ जीव : स्वरूप और लक्षण / १०३ होना जीवन है और प्राणशक्ति का चुक जाना मृत्यु। जीव और काय शरीर-रचना के आधार पर जीव छह भागों में विभाजित होता है-- १.पृथ्वीकाय, २.अप्काय, ३.तैजसकाय, ४.वायुकाय, ५.वनस्पतिकाय, ६.त्रसकाय। साधारणतया त्रसकाय को गतिशीलता के आधार पर जीव माना जाता है । वनस्पति को भी कुछ लोग जीव मानते हैं । जैन दर्शन में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को भी सजीव माना गया है। जैन दर्शन का सिद्धान्त है कि दृश्य या स्थूल जगत जीवों के द्वारा निर्मित होता है। जितना दृश्य जगत है वह या तो जीवयुक्त शरीर है या जीवमुक्त शरीर । ऐसा कोई भी तत्त्व दृश्य नहीं है जो जीव के शरीर के रूप में परिणत न हुआ हो। जीव के इन छह कायों में वनस्पतिकाय जीवों का अक्षय कोष है। केवल इसी काय में अनन्त जीव होते हैं । विकास की प्रक्रिया के अनुसार जीव वनस्पति से निकल कर आगे की यात्रा तय करता है। जीव और आत्मा ___'भगवती सूत्र' में जीव के तेईस पर्यायवाची नाम दिए है; १.जीव, २. जीवास्तिकाय, ३. प्राण, ४. भूत. ५.सत्त्व, ६.विज्ञ, ७.वेदक, ८. चेतस्, ९. जेता, १०. आत्मा, ११. रंगण, १२. हिण्डुक, १३. पुद्गल, १४. मानव, १५. कर्ता, १६. विकर्ता, १७. जय, १८. जन्तु. १९. योनि, २०. स्वयंभू, २१. सशरीर, २२. ज्ञायक, २३. अन्तरात्मा। (भगवती २०/१७) शाब्दिक दृष्टि से जीव का अर्थ होता है प्राण-धारण करने वाला और आत्मा का अर्थ होता है चेतना की विविध अवस्थाओं का अनुभव करने वाला; किन्तु स्थूल व्यवहार में इन्हें एकार्थक कहा जा सकता है। जीव दो प्रकार के होते हैं: बद्ध-कर्म शरीर से बंधा हुआ; मुक्त-कर्म-शरीर से पृथग्भूत। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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