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८८ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
द्रव्य दिशा-मेरू पर्वत के क्षुल्लक प्रतर में आठ रुचक प्रदेश है। ये रुचक प्रदेश ही दिशाओं एवं विदिशाओं के उत्पत्ति स्थान हैं। वहां से जो दिशाएं निकलती हैं उन्हें द्रव्य दिशा कहा जाता है। मेरू पर्वत के रुचक प्रदेश दिशा के मूलस्रोत है।
__ताप दिशा-सूर्योदय-सूर्यास्त से सम्बद्ध दिशा ताप दिशा कहलाती है। जैसे जहां सूर्य उदित होता है, वह पूर्व दिशा है। जहां अस्त होता है, वह पश्चिम दिशा है।
प्रज्ञापक दिशा-कोई मनुष्य खड़ा है-उसके ठीक सामने पूर्व, पृष्ठभाग में पश्चिम, दाहिनी ओर दक्षिण तथा बायीं ओर उत्तर दिशा हैयह प्रज्ञापक दिशा का सूचक है। ये दिशाएं निमित्त कथन की अपेक्षा से हैं। इन चारों दिशाओं के बीच में चार विदिशायें हैं । चार दिशायें और चार विदिशायें इन आठों के अन्तराल में आठ अन्य दिशायें कहलाती हैं। नीचे की दिशा अधोदिशा तथा ऊपर की दिशा ऊर्ध्वदिशा कहलाती है। इस प्रकार प्रज्ञापक दिशा के ये अठारह भेद होते हैं और ये ही अठारह भेद ताप दिशा के भी होते हैं। ___भाव दिशा-यह जीव दिशा है । आचारांग वृत्ति में इसके भी अठारह भेद उपलब्ध होते हैं
चार मनुष्य-सम्मूछिज, कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तीपज । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय । पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तैजसकायिक, वायुकायिक। वनस्पति काय के चार-अग्रमूल, पर्व, स्कंध, बीज। देव और नारक।
यहां क्षेत्र दिशा की अपेक्षा नहीं है। वह बहत छोटी है। उसमें जीव पैदा नहीं हो सकते। 'एक प्रदेशिकत्वात् चतुः प्रदेशिकत्वात्' या तो वह एक प्रदेशी है या चतु-प्रदेशी है। चार महादिशाओं में जीव उत्पन्न हो सकते हैं।
विवेच्य संदर्भ में दिशाओं के अन्य भेद प्रासंगिक नहीं हैं। अठारह प्रज्ञापक दिशायें ही अभिप्रेत हैं।
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