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स्याद्वाद और अनेकान्त / ७५
अथवा ऊँट नहीं अथवा ऊँट ऊँट ही है दही नहीं, इस तरह दही में उसकी विशेषता को इन्कार करने से किसी को 'दही खा' कहने पर वह क्यों ऊँट पर नहीं दौड़ता?'
'यदि दही में कुछ विशेषता है, जिस विशेषता के साथ दही वर्तमान है, ऊँट नहीं, तब तो वह विशेषता अन्यत्र भी है, यह बात नहीं रही और इसीलिए, सब वस्तु दोनों रूप नहीं, बल्कि अपना ही अपना है और पर ही पर है।' ___ शंकराचार्य से लेकर अब तक अधिकांश विद्वान स्याद्वाद को संशयवाद के रूप में ही प्रस्तुत करते रहे। इसकी दार्शनिक गहराई में जाने का प्रयत्न बहुत कम हुआ है। स्यात् पद का प्रयोग द्रव्य की अनंत धर्मात्मकता को सूचित करता है। वह अनिश्चय अथवा संशय का सूचक नहीं है। एक क्षण में एक शब्द अथवा वाक्य के द्वारा एक साथ अनंत धर्मात्मक द्रव्य के अनंत धर्मों का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। इस अशक्यता के दोष का परिहार करने के लिए 'स्यात्' इस शब्द का प्रयोग किया गया। चैतन्य जीव द्रव्य का समग्र स्वरूप नहीं है। इसी प्रकार अचेतनता भी अजीव का समग्र स्वरूप नहीं है। चैतन्य और अचैतन्य-दोनों विशेष गुण हैं इसीलिए इनमें लक्षण बनने की क्षमता है। जब हम विशेष गुण के द्वारा द्रव्य का प्रतिपादन करते हैं तब उसमें विद्यमान शेष सामान्य गुणों का अस्वीकार नहीं कर रहे हैं, किन्तु वर्तमान में वे अविवक्षित हैं। इस सत्य को सूचित करने का दायित्व 'स्यात्' पद पर है। द्रव्य के अस्ति धर्म का प्रतिपादन करना द्रव्य की समग्रता का प्रतिपादन नहीं है और समग्रता का प्रतिपादन हो भी नहीं सकता। प्रतिपादन के दो उपाय हैं
१. एक धर्म का प्रतिपादन। २. एक धर्म के माध्यम से अनंत धर्मात्मक द्रव्य का प्रतिपादन।
पहली पद्धति नयवाद की है। जैन दर्शन में केवल अनेकांत ही मान्य नहीं है, एकांत भी मान्य है। प्रसिद्ध सूत्र है
अनेकांतोप्यनेकान्तः स्याद्वादनयसाधनः । स्याद्वाद दार्शनिक जगत में समग्र द्रव्य की प्रतिपादन शैली का
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