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७४ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
अनेकांत का क्षेत्र केवल द्वैतवाद नहीं, अद्वैतवाद भी है। वेदान्त का अन्तिम सत्य ब्रह्म है। संग्रह नय का अन्तिम सत्य अस्तित्व है। उसमें चैतन्य और अचैतन्य का विभाग भी नहीं है। भूताद्वैतवाद अथवा चैतन्याद्वैतवाद-इन दोनों में क्रमश: अचैतन्य और चैतन्य की स्वीकृति है किन्तु पर-संग्रह नय में ये दोनों गौण हैं, केवल सत्ता की स्वीकति है। इसलिए अनेकांत को एक, दो, तीन आदि की संख्या से जोड़ना अर्थवान नहीं है।
जैन दर्शन के अनुसार मूल द्रव्य दो हैं जीव और अजीव किन्तु उनमें सर्वथा भेद अथवा सर्वथा अभेद नहीं है। यह भेदाभेदात्मक दृष्टिकोण अनेकांत का प्राणतत्व है। स्याद्वाद के द्वारा इस सत्य का प्रतिपादन इस प्रकार होगा
१. स्यात्-कथंचित्, किसी अपेक्षा से जीव अजीव से भिन्न है। २. स्यात्-कथंचित्, किसी अपेक्षा से जीव अजीव से अभिन्न है।
महान दार्शनिक अकलंक ने जीव को चेतनाचेतनात्मक कहा। उनके अनुसार प्रमेयत्व आदि धर्मों से जीव अचिदात्मा है और चैतन्य धर्म से वह चिदात्मा है
प्रमेयत्वादिभिर्धमरचिदात्मा चिदात्मकः।
ज्ञानदर्शनत स्तस्माद् चेतनाचेतनात्मकः॥ जीव और अजीव में सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद है, यह सिद्धान्त संगत नहीं है। यदि सर्वथा भेद हो तो कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता। यदि सर्वथा अभेद हो तो द्वैत नहीं हो सकता, माया प्रतिबिम्ब आदि कुछ भी नहीं हो सकते। कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद-यह समन्वय का नियम है और इसी नियम के आधार पर जीव और अजीव में समन्वय स्थापित किया जा सकता है। इसके बिना चेतन और अचेतन-ये दो शब्द निरर्थक बन जाते हैं।
स्यात् इस शब्द के विषय में धारणाएं स्पष्ट नहीं है। सुप्रसिद्ध बौद्ध तर्कविद् धर्मकीर्ति ने स्यात् शब्द पर जो आक्षेप किया है, वह उन जैसे सूक्ष्म मति वाले तार्किक द्वारा किया हुआ है, ऐसा सोचना भी शक्य नहीं है। उन्होंने लिखा- 'यदि सब वस्तु दोनों, रूप हैं तो दही दही ही है
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