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स्याद्वाद और अनेकान्त
जैन-दर्शन यथार्थवादी दर्शन है। उसके अनुसार उसने पंच अस्तिकाय के आधार पर विश्व की व्याख्या की है। अस्तिकाय की व्याख्या के लिए एक विशेष दृष्टिकोण को अपनाया, उसका नाम है-अनेकांत। अनेकांतात्मक दृष्टिकोण की प्रतिपादन शैली का विकास किया, उसका नाम है-स्याद्वाद। अनेकांत और स्याद्वाद सर्वथा एक नहीं हैं और सर्वथा विभक्त भी नहीं हैं।
अनेकान्त का मूल आधार है नयवाद। भगवान महावीर ने अस्ति अथवा अस्तिकाय की व्याख्या के लिए दो नयों का आलंबन लियाद्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय। अस्तिकाय अनादि अनंत हैं इसलिए वे ध्रुव हैं। वे परिणमनशील हैं, पर्यायात्मक हैं इसलिए वे अध्रुव हैं, अनित्य हैं। इस नित्यानित्यात्मक विरोधी युगल के सह-अस्तित्व की स्वीकृति का दृष्टिकोण अनेकांत है।
सांख्य दर्शन द्वैतवादी है और जैन दर्शन भी द्वैतवादी। अनेकांत का सम्बन्ध द्वैतवाद से नहीं है। उसका सम्बन्ध दो विरोधी द्रव्यों अथवा दो विरोधी धर्मों में सह-अस्तित्व स्थापित करने वाले समन्वय के नियम को खोजने में है। प्रत्येक अस्तिकाय में अनंत धर्म हैं और वे विरोधी युगलात्मक हैं। यदि परस्पर विरोधी ही होते तो अस्तित्व सुरक्षित नहीं रहता। विरोधी युगलों का अस्तित्व उसे समाप्त कर देता। उन विरोधी धर्मों में अविरोध के नियम को खोजना अनेकांत का मुख्य प्रयोजन है और उस अविरोध के नियम की सापेक्ष दृष्टि से व्याख्या करना स्यावाद का कार्य है।
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