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७२ / जन दशन क मूल सूत्र
के सिद्ध होने से पूर्व वह नहीं था यह नहीं माना जा सकता। सिद्धि ज्ञान के विकास पर निर्भर है, किन्तु अस्तित्व ज्ञान पर निर्भर नहीं है। उसकी निर्भरता अपने मौलिक गुणों पर है।
__ हम केवल पौद्गलिक वस्तु को ही नहीं जानते, चेतन द्रव्य को भी जानते हैं। ज्ञाता चेतन ही होता है, किन्तु ज्ञेय चेतन और अचेतन-दोनों हो सकते हैं। जैसे पौद्गलिक वस्तु ज्ञान से स्वतन्त्र है वैसे ही एक आत्मा से दूसरी आत्माएं स्वतंत्र हैं। आत्माएं अनेक हैं । इसलिए जो आत्मा दूसरों का ज्ञान करते समय ज्ञाता होती है वह दूसरी आत्मा के द्वारा ज्ञेय हो जाती है। पौद्गलिक वस्तु में केवल ज्ञेय धर्म होता है, किन्तु आत्मा में ज्ञाता
और ज्ञेय- ये दोनों धर्म होते हैं । महान दार्शनिक काण्ट का यह वाक्य'विचार को वस्तु नहीं बनाना चाहिए' जितना सत्य है उतना ही यह सत्य है कि वस्तु को विचार नहीं बनाना चाहिए।' अनेकान्तवाद ने विचार और वस्तु- दोनों की सापेक्ष व्याख्या की है। परम अस्तित्व के जगत में विचार
और वस्तु का भेद नहीं है। अपर अस्तित्व के जगत में विचार से वस्तु भिन्न है। प्रत्ययवादी शैलिंग ने यह स्वीकार किया है कि आत्मा और अनात्मा एक दूसरे के लिए आवश्यक हैं। एक की स्थिति दूसरे के बिना नहीं हो सकती। इस स्वीकार को अनेकान्तवाद का समर्थन मिलता है। उसके अनुसार जो सत् है वह सप्रतिपक्ष होता है। प्रतिपक्ष के बिना पक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती। इस स्थिति में वस्तुवाद भी सत्यांश है। प्रत्ययवाद और वस्तुवाद एक-दूसरे से निरपेक्ष होकर असत्यांश हो जाते हैं और परस्पर-सापेक्ष होकर सत्यांश बन जाते हैं। परम अस्तित्व की स्वीकृति के बिना वस्तु और उसके पारस्परिक सम्बन्धों के मूल आधार की व्याख्या नहीं की जा सकती। वस्तु की स्वतन्त्रता की स्वीकृति के बिना विशिष्ट गुणों की व्याख्या नहीं की जा सकती। इन दोनों की सांमजस्यपूर्ण व्याख्या परम अस्तित्व और वस्तु की स्वतन्त्रता की सापेक्ष-स्वीकृति द्वारा ही की जा सकती है।
१. पाश्चात्य दर्शनों का इतिहास पृष्ठ १७४ ।
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