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नियात आर पुरुषाथ / ६७
३. संकल्पजा हिंसा-इन्द्रिय-लोलुपता, उच्छृखलता या प्रमादवश होने वाली हिंसा।
जैन दर्शन ने व्यावहारिक मार्ग सुझाया कि कोई भी गृहस्थ व्यवसाय या खेती से बच नहीं सकता। उसके बिना जी नहीं सकता। उसे अपनी सुरक्षा भी करनी होती है। इसलिए सबसे पहले वह संकल्पजा हिंसा को छोड़े। यह है परिष्कार का मार्ग।
जब वृत्तियों का परिष्कार, संज्ञाओं का परिष्कार होता है, तब संयम की शक्ति का विकास होता है। इन्द्रियों और मन का संयम शक्ति का स्रोत है। संयम की शक्ति के बिना धर्म की सही आराधना नहीं हो सकती। उपासना और संयम-दोनों का योग है। यदि संयम की साधना नहीं है तो न अर्हत् की शरण प्राप्त होगी और न अर्हत् की वन्दना होगी। अर्हत् की शरण में जाना, अर्हत को वन्दना करना-यह संयम को उपलब्ध होना है । जिस मार्ग पर चलकर अर्हत् अर्हत् बने हैं, वह मार्ग है संयम का। गृहस्थ के लिए संयम का मार्ग है और मुनि के लिए भी संयम का मार्ग है। संयम है समता और समता है संयम। जहां संयम नहीं है, वहां समता नहीं हो सकती और जहां समता नहीं है, वहां संयम नहीं हो सकता।
आज इस पदार्थवादी परम्परा ने भोगवाद को बढ़ाया है और इससे असंयम बढ़ा है। लोभ और कामवासना जितनी प्रबल होगी, तनाव उतना ही अधिक होगा। असंयम तनाव का जनक है। संयम के बिना तनाव को मिटाया नहीं जा सकता। भीतर आग भभक रही है असंयम की। तो फिर तनाव क्यों नहीं उतरेगा? दूध में उफान क्यों नहीं आएगा? लोभ और कामवासना की आंच पर रखा हुआ मन बेचारा गर्म नहीं होगा तो क्या होगा? रक्तचाप, हार्टट्रबल, कैंसर, अल्सर आदि बीमारियों का जनक है असंयम।
जैन दर्शन संयम की भित्ति पर खड़ा है। जैन धर्म की व्याख्या आध्यात्मिक धर्म की व्याख्या है।
भारतीय साहित्य में चार पुरुषार्थ माने गए हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । गृहस्थ इन चारों की साधना करता है। जीवन चलाने के लिए अर्थ और काम-~ये दो पुरुषार्थ जरूरी हैं। जीवन की पवित्रता के लिए धर्म और मोक्ष-ये दो पुरुषार्थ जरूरी हैं। आवश्यकता यह है कि काम और अर्थ-ये दो पुरुषार्थ धर्म और मोक्ष को बाधित न करें, किन्तु इनसे
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