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६६ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
सके। महाराजा भरत चक्रवर्ती थे। विशाल साम्राज्य के अधिपति । राज्य करते हुए भी इतने निर्लेप कि राज्य का वैभव उनमें मूर्छा उत्पन्न नहीं कर सका। वे आदर्श गृह में बैठे-बैठे अनुप्रेक्षा कर रहे थे। अध्यवसाय की विशुद्धि हुई और वे केवलज्ञानी हो गए। वे मुनि बनकर नहीं, केवली बनकर घर से निकले। न केवल भरत चक्रवर्ती, किन्तु उनके बाद आने वाले आठ उत्तराधिकारी इसी प्रकार केवली बनकर महल से निकल पड़े। जब नौवां उत्तराधिकारी आया तो उसने सोचा, यह तो बड़ी समस्या है कि राजा इस महल में बैठा-बैठा केवली हो जाता है। उसने महल को तुड़वा दिया। बात समाप्त हो गयी।
भरत चक्रवर्ती का यह एक सुन्दर निदर्शन है कि व्यक्ति गहस्थी में रहते हुए भी इतना निर्लिप्त हो सकता है कि मुनि बने बिना ही केवली बन जाता है। यह जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण अभ्युपगम है कि मुक्ति का अनुबंध, कैवल्य का अनुबंध मुनिवेश या गृहस्थवेश से नहीं, निर्लेपता से है। भगवान महावीर ने यहां तक कह दिया कि कुछेक गृहस्थ संयम की साधना में मनियों से भी प्रधान होते हैं- 'गारत्था संजमोत्तरा'।
भगवान महावीर ने मुनि-धर्म के साथ-साथ गृहस्थ धर्म का भी निर्देश किया। गहस्थ धर्म के मूल सूत्र हैं-इच्छा का परिष्कार, परिग्रह का परिष्कार और लोभ का परिष्कार। इसका व्यावहारिक रूप यह है कि अर्जन में साधन-शुद्धि होनी चाहिए। यह पहला परिष्कार है। दूसरा परिष्कार है कि व्यक्तिगत लोभ की मर्यादा होनी चाहिए कि इतने से अधिक का उपयोग नहीं करूंगा, इतने से अधिक पदार्थों को काम में नहीं लूंगा। ये दोनों बातें जब होती हैं, तब अर्जन के साधन शुद्ध हो सकते हैं और व्यक्तिगत भोग का संयम होता है। फिर धनार्जन की समस्या सुलझ जाती है । अपरिग्रह सूत्र की साधना के लिए आन्तरिक सूत्र है- अमूर्छा और व्यावहारिक सूत्र है-साधनशुद्धि का विवेक, भोग का संयम।
इसी प्रकार जैन दर्शन ने अहिंसा के लिए भी महत्त्वपूर्ण सूत्र दिए। अहिंसा की साधना का आन्तरिक सूत्र हैं-भावशुद्धि, मैत्री का विकास और व्यावहारिक सूत्र है- अनावश्यक हिंसा का वर्जन। हिंसा के तीन प्रकार हैं
१. आरंभजा हिंसा-कृषि, व्यापार आदि में होने वाली हिंसा। २. विरोधजा हिंसा--सुरक्षा या बचाव के लिए होने वाली हिंसा।
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