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नियति और पुरुषार्थ
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मनुष्य स्वतन्त्र है या परतन्त्र-यह प्रश्न अनादिकाल से पूछा जाता रहा है। यदि वह नियति के हाथ की कठपुतली है तो वह परतन्त्र है और यदि वह कुछ करने में सक्षम है तो वह स्वतन्त्र है। जैन-दर्शन ने इस प्रश्न पर सापेक्षदृष्टि से विचार किया। सापेक्षदृष्टि का निर्णय है कि नियति का अपना स्थान है और पुरुषार्थ का अपना स्थान है। काल का अपना स्थान है और स्वभाव का अपना स्थान है। कर्म का स्थान भी स्वतन्त्र है। सबका अपना-अपना स्थान और अपनी-अपनी सीमाएं। कोई भी तत्त्व असीम नहीं है। ऐसा कोई तत्त्व नहीं है, जो सब कुछ हो। इस दुनिया में सब कुछ कोई नहीं है। सब सीमित है।
नियति का अर्थ है-सार्वभौम नियम, यनिवर्सल लॉ, ऐसी सचाई जो सर्वत्र लागू होती है । नियति अपरिवर्तनीय और अनतिक्रमणीय नियम है। कोई इसे टाल नहीं सकता। मरना नियति है। जन्मना नियति है। इसे कोई नहीं टाल सकता। ऐसे करोड़ों नियम हैं जो सर्वत्र लागू होते हैं। उत्पन्न होना और नष्ट होना नियति है। बदलना नियति है। इन्हें टाला नहीं जा सकता। इस अर्थ में प्रत्येक पदार्थ और प्रत्येक प्राणी परतन्त्र है, नियति के अधीन है।
किन्तु सब कुछ नियति नहीं है। सारे नियम नियति नहीं हैं । नियति की भी अपनी सीमा है। इस सीमा के कारण पुरुषार्थ के लिए अवकाश बच जाता है।
पुरुषार्थ करने में हम स्वतन्त्र है। नियति पुरुषार्थ में कोई बाधा नहीं डालती और पुरुषार्थ नियति में कोई बाधा नहीं डालता। दोनों की अपनी
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