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६२ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
अपनी मर्यादा है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, किन्तु बाधक नहीं हैं।
पुरुषार्थ के द्वारा हम बदलते हैं। परिवर्तन में पुरुषार्थ का बड़ा महत्त्व है। पुरुषार्थ से हम अपने भाग्य को भी बदलते हैं और अपनी स्थिति को भी बदलते हैं। जैन दर्शन में पुरुषार्थ को बहुत मूल्य प्राप्त है। काल, स्वभाव, नियति, कर्म या भाग्य और पुरुषार्थ-ये पांच समवाय कहलाते हैं। पांचों का अपना-अपना प्रतिशत बंटा हुआ है। पांचों में पुरुषार्थ का प्रतिशत सबसे अधिक है।
जैन-दर्शन पुरुषार्थवादी दर्शन है। यह न ईश्वर के हाथ का खिलौना है और न नियति के हाथ की कठपुतली है। अनेक लोग कहते हैं-जैसा भाग्य में लिखा है, वैसा ही होगा। जैन-दर्शन इसको मान्यता नहीं देता। मनुष्य जब ईश्वर के हाथ का खिलौना नहीं है तो फिर कर्म के हाथ का खिलौना कैसे बनेगा? कर्म की भी एक सीमा है। कर्म को असीम महत्त्व देना और यह मानकर बैठ जाना कि सब कुछ कर्म से होता है, यह भी गलत है। पुरुषार्थ ही कर्म का घटक है। पुरुषार्थ कर्म को बनाता है। इस दृष्टि से पुरुषार्थ बड़ा है, न कि कर्म। यदि बड़ा न कहें तो यह तो कहना ही होगा कि दोनों समतुल्य हैं। कर्म की सार्वभौम सत्ता नहीं है।
प्रश्न यह होता है कि कोई भी व्यक्ति पुरुषार्थ क्यों करेगा? किस दिशा में करेगा? कहां करेगा? पुरुषार्थ बिना प्रयोजन के होता नहीं और जैन-दर्शन ने ईश्वर को अस्वीकार कर दिया तो फिर उसके सामने आदर्श क्या रहा, जिसके लिए वह पुरुषार्थ करे? कोई-न-कोई आदर्श चाहिए। आदर्श के बिना आदमी किस दिशा में जाएगा? कैसे पुरुषार्थ करेगा? प्रेरणा कहां से मिलेगी? यह स्वाभाविक प्रश्न है।
जैन-दर्शन ने जगत कर्ता के रूप में ईश्वर को अस्वीकार किया है, किन्तु आदर्श के रूप में अस्वीकार नहीं किया है। जैन-दर्शन में ईश्वर एक नहीं, अनंत हैं। हमारे सामने आदर्श है 'अर्हत्'। वह जीवित ईश्वर है, पुरुष ईश्वर है, मुक्त ईश्वर नहीं है । इस आदर्श की वन्दना और भक्ति की जाती है। जैन-दर्शन का मंत्र है-'णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं'। इसमें पहला
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