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५८ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
प्रजातियां बदलती रहती हैं। प्राणियों का अस्तित्व भी बदलता रहता है। आकार भी एक समान नहीं रहता। आज आदमी का जो आकार है, क्या पहले भी वही आकार था? कहना कठिन है। वह बहुत बदला है, उसमें इतना परिवर्तन आया है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। आगम साहित्य में ऐसे-ऐसे प्राणियों-मनुष्यों का उल्लेख है, जिनका मुंह घोड़े जैसा होता था और जिनके पूँछ भी होती थी। आज यह माना जाता है-बन्दर के पूँछ होती है पर छप्पन अन्तर्वीप के मनुष्यों का जो वर्णन उपलब्ध होता है, वह बहुत विचित्र है। इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि मनुष्य सदा इसी रूप में था। उसके आकार-प्रकार बदले हैं, रूप बदले हैं। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी बदलते रहे हैं । इस स्थिति में एक जैसा होने की बात कठिन है। प्राणी जगत भी बदला है और मनुष्य भी बदला है।
जब से इस पृथ्वी का अस्तित्व है, जीव और पुद्गल का संयोग है, तब से प्राणी जगत का अस्तित्व है, मनुष्य का अस्तित्व है। उसमें परिवर्तन का चक्र चलता रहता है।
विज्ञान के अनुसार पदार्थ का निर्माण मौलिक्यूल से होता है और मौलिक्यूल का निर्माण परमाणुओं के संयोग से होता है। जैन दर्शन में वस्तु की उत्पत्ति के दो प्रकार बतलाए गए हैं-संघात और भेद। परमाणुओं का संघात होने से भी वस्तु उत्पन्न होती है और स्कंध टूटने से भी वस्तु उत्पन्न होती है।
परिणाम दो प्रकार के हैं--सादि पारिणामिक और अनादि पारिणामिक। अनादि परिणामिक में किसी नई वस्तु का निर्माण नहीं होता और जो हैं उनका विलोप नहीं होता। जो हैं, वे रहेंगे। जितने हैं, उतने ही रहेंगे। सादि पारिणामिक में नए रूपों का निर्माण होता है और पुराने रूपों का विध्वंस। अनादि पारिणामिक को विश्व और लोक तथा सादि पारिणामिक को सृष्टि कहा जा सकता है।
सृष्टि और सादि पारिणामिक का मूल हेतु है पुद्गल-वर्गणा। मूल वर्गणाएं आठ हैं:
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