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________________ ५२ / जैन दर्शन के मूल सूत्र न कभी समाप्त होने वाला है। सारे जगत के सन्दर्भ में व्यक्ति को, अपने आपको पहचानना है। जब तक जगत को नहीं समझा जा सकता तब तक व्यक्ति को पहचाना नहीं जा सकता। सारा प्रयत्न सिर्फ अपने-आपको जानने के लिए हो रहा है। गाय रखना, उसका दूध निकालना, दूध को गर्म करना, ठण्डा करना, जामन देना, दही बनाना, बिलौना करना- सारा किसलिए? मक्खन के लिए सारा किया जाता है। सारे जगत को समझना, जगत की व्याख्या करना, उसके बारे में चिन्तन करना, यह सारा किसलिए? एक अपने आपको समझने के लिए कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, अस्तित्व कब से है, कब तक रहेगा? अपने बारे में पूरी जानकारी करने के लिए सारे जगत का बिलौना करना पड़ता है, तब कहीं जाकर मक्खन निकलता है। ऐसे ही मक्खन नहीं निकल जाता। बहुत झंझट करना पड़ता है। अपने आपको जानने के लिए यह हमारा सारा प्रयत्न है। हम स्वयं अपनी पहचान करें कि हम क्या हैं? हम चेतन हैं। हमारी चेतना स्वतन्त्र है। किसी की कृति नहीं हैं। हम ज्ञाता हैं। हमारे भीतर ज्ञान है, जानने की शक्ति है। हमारे भीतर विवेक है, भेद करने की शक्ति है। हम जिस शक्ति के साथ रह रहे हैं, उसका भी भेद करना जानते हैं। जो यह शरीर है, मैं नहीं हूं। मैं अलग हूं, यह शरीर अलग है। अपनी सारी पहचान इस जगत के सन्दर्भ में होती है। इसलिए हमें जगत को जानना भी जरूरी है, अपने-आपको भी जानना जरूरी है। जगत को जाने बिना अपनेआपको नहीं जाना जा सकता और अपने आपको जाने बिना जगत को भी नहीं जाना जा सकता। जगत को जानें, जगत के स्वभाव को जानें और जगत में हमारा स्थान क्या है, उसे भी जानें, हमारा स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसलिए कि अचेतनं तत्त्व में शक्ति तो है पर चेतना नहीं, ज्ञान की क्षमता नहीं। हमारा वह अस्तित्व है जिसमें चैतन्य भी है, शक्ति भी है और आनन्द भी है। ये तीनों बातें हैं। जैन-दर्शन के अनुसार प्रज्ञा दो प्रकार की होती है। एक ज्ञ-प्रज्ञा और दूसरी प्रत्याख्यान-प्रज्ञा। पहले जानो, फिर व्यवहार करो। यानी जो छोड़ने का है, उसे छोड़ दो। जो ग्रहण करने का है उसे ग्रहण करो। जिसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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