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जगत और ईश्वर / ५१
तत्त्व और स्थितितत्त्व को छोड़ा नहीं जा सकता। परमाणुओं, काल और देश का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। फिर आदमी अकेला रहेगा कहां? यह अकेलेपन की कल्पना स्थूल कल्पना है, सापेक्ष कल्पना है। अकेला कोई भी हो नहीं सकता। हर आदमी एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है, सम्बन्ध किए हुए है।
यह जैन दर्शन का जगत, जिसमें सहअस्तित्व है, जिसमें भाईचारा है, जिसमें स्वतन्त्रता है, इसमें हम हैं । हम केवल पुद्गल के साथ ही नहीं हैं। जीवों के साथ भी हैं। जिस जगत में हम हैं, उसमें हमारे और भी बहुत से भाई हैं। सगे भाई हैं। एक पृथ्वी का जीव, मिट्टी से पैदा होने वाला जीव, एक पानी में पैदा होने वाला जीव, एक अग्नि में पैदा होने वाला जीव, एक वायु में पैदा होने वाला जीव, एक वनस्पति में पैदा होने वाला जीव और एक त्रस में पैदा होने वाला जीव। एक आदमी इन सारे जीवों के साथ जी रहा है। हम अकेले नहीं हैं। कितना बड़ा है हमारा परिवार। मूल जगत तो हमारा बहुत छोटा है। द्रव्य बहुत छोटा है किन्तु उसका परिवार बहुत लम्बा है। विस्तार को जब हम देखें तो पता ही नहीं चल सकता। बड़ा विचित्र-सा लगता है। जगत का मूल भाग बहुत छोटा और उत्तर भाग बहुत बड़ा होता है । ग्रन्थ छोटा और परिशिष्ट तथा भूमिका बड़ी। ऐसा होता है। वही बात हो गई, सूत्र का यही तो मतलब है, सूत्र बहुत छोटा और अर्थ बहुत बड़ा।
एक जैन आचार्य ने एक ग्रन्थ बनाया। उसका नाम है अष्टलक्षार्थी । केवल आठ अक्षर हैं । 'राजा नो ददते सौख्यम्' अनुष्टप श्लोक का सिर्फ एक चरण। इन आठ अक्षरों के अर्थ हैं आठ लाख। अक्षर थोड़े और अर्थ इतने अधिक। एक-एक अक्षर का एक-एक लाख अर्थ । ठीक हमारे जगत की यही स्थिति है। मूल तत्त्व हैं पांच और उनका विस्तार इतना बड़ा जगत बन गया। कितना विस्तार हो गया?
उस जगत में हम लोग रह रहे हैं। हम अपने अस्तित्व को समझें कि हम किसी की सष्टि नहीं हैं, किसी की रचना नहीं हैं। हमारा स्वतन्त्र अस्तित्व है। अनादि हैं, अनन्त हैं। न तो कभी हमारा अस्तित्व बना और
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