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५० / जैन दर्शन के मूल सूत्र
के खेल हैं। बच्चा खेल खेलता है, कभी कुछ बना देता है, कभी कुछ बिगाड़ देता है।
आज का हिन्दुस्तान कभी बृहत् भारत रहा। आज छोटा-सा भारत बन गया। हजारों वर्षों में न जाने कौन देश कितना बना है और कितना बिगड़ा है। यह सारा परिवर्तन होता है, इसलिए कि स्वाभाविक नहीं है। स्वाभाविक यह है कि एक जगत और उस जगत में रहने वाले मूल तत्त्व सब पड़ोसी हैं। एक दूसरे से मिले-जुले हैं और एक साथ रह रहे हैं। यह मेरी अंगुली है। इस अंगुली में आपको क्या दीखता है? आपको कोरी अंगुली दिखाई पड़ रही होगी। क्या यहां धर्मास्तिकाय नहीं है? अवश्य है। क्या अधर्मास्तिकाय इस अंगुली में नहीं है? वह भी है। यानी गतितत्त्व भी है और स्थितितत्त्व भी है। क्या आकाश अंगुली में नहीं है? वह भी है। क्या यहां काल नहीं है? अवश्य है। क्या पुद्गल नहीं है? पुद्गल भी है। क्या चेतना नहीं है? वह भी है। सब एक साथ रह रहे हैं? एक ही आकाश में सारे तत्त्व समाए हुए हैं और साथ-साथ रह रहे हैं। न कोई किसी को मार रहा है, न कोई किसी को काट रहा है और न कोई किसी का विरोध कर रहा है। सब एक साथ रह रहे हैं।
जैन दर्शन ने इस द्वैतवाद की स्थापना कर एक ऐसे सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, जिसके आधार पर आज अहिंसा और मैत्री के सिद्धान्त का विकास हुआ। अहिंसा और मैत्री का सिद्धान्त कहां से आया? यह साहचर्य से आया। सब द्रव्य एक साथ रहते हैं। कहीं कोई विरोध की भावना नहीं, विरोध की बात नहीं। कोई टकराव नहीं। एक साथ में रहना और अपने-अपने अस्तित्व को स्वतन्त्र बनाए रखना।
अहिंसा का यह अर्थ नहीं कि हम अपने अस्तित्व को समाप्त कर दें। अपना अस्तित्व स्वतन्त्र रहे, एक साथ रहे। स्वतन्त्रता और सहअस्तित्व दोनों का इतना सुन्दर प्रतिपादन हुआ है कि तुम स्वतन्त्र भी हो और सहअस्तित्व वाले भी हो। अकेला कोई रह नहीं सकता। अगर कोई आदमी यह चाहे कि मैं अकेला रहूं, कभी सम्भव नहीं है। दुनिया में अकेला कोई रह ही नहीं सकता। आकाश को छोड़ा नहीं जा सकता। गति
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