________________
जगत और ईश्वर / ४९
बात है। जहां जीव-संयम है तो साथ-साथ में अजीव संयम भी है। एक आदमी जा रहा है। ईंट पड़ी है। ठोकर लगी। गुस्से में आया और ईंट को भी तोड़ दिया। यह हिंसा है। आप कहेंगे कि ईंट में जीवन तो नहीं है। हिंसा किसकी हुई? अरे, पुद्गल की भी हिंसा होती है। पुद्गल की भी अवज्ञा होती है, अपमान होता है। ईंट के प्रति गुस्सा निकाला तो हिंसा हो गई। अजीव के प्रति भी हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए। कपड़ा पहना हुआ है। गर्मी लगी। पसीना आया। कपड़े को ही फाड़ डाला। यह भी हिंसा है। अजीव के प्रति भी हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए, यह जानना भी जरूरी है। क्योंकि अजीव का भी अस्तित्व है। आदमी जा रहा है। बालू का टीला आया। पैर से उसे रौंदा। यह भी हिंसा है। अजीव को भी इधर-उधर करने का अधिकार नहीं है। उसका अपना अस्तित्व है। हमारा अस्तित्व है तो उसका भी अपना अस्तित्व है। इस जगत को हमारे अस्तित्व के साथ जैन दर्शन ने एक ऐसी व्यवस्था दी कि तुम अकेले नहीं हो, इसलिए तुम्हारा व्यवहार और आचरण भी संयत होना चाहिए।
जहां गांव है, गांव में हजारों घर हैं, वहां एक सामाजिक शिष्टता होती है, नागरिक चेतना होती है। नागरिक चेतना का अर्थ होता है कि हम अपने पड़ोसी के साथ कैसा व्यवहार करें? बहुत बार ऐसा होता है कि अपने घर से सफाई की, कचरा निकाला और दूसरे के घर के सामने डाल दिया। यह नागरिक शिष्टता का अतिक्रमण है। हम सब इस दुनिया में पड़ोसी हैं। इस जगत में चेतन अचेतन का पड़ोसी है और अचेतन चेतन का पड़ोसी। सारा एक कुटुम्ब, एक पड़ोस। सीमाएं कृत्रिम हैं। यह जोधपुर, यह उदयपुर,- यह दिल्ली , यह कलकत्ता, यह राजस्थान, यह पंजाब, यह हरियाणा- ये सारी सीमाएं कृत्रिम हैं, व्यावहारिक हैं । वास्तविक नहीं हैं। न जाने कितनी बार मनुष्य ने इन सीमाओं को बदला है। कितनी बार बनाया है। जो किया हुआ होता है, उसका यह स्वभाव होता है कि कितनी बार बनता है, कितनी बार बिगड़ता है। कभी किया जाता है, कभी मिटाया जाता है। ये सारे बच्चों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org