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४८ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
एक आदमी बोलता है, वह क्यों बोलता है। आत्मा बोलती है या पुद्गल बोलता है? पुद्गल कभी बोलता नहीं, आत्मा भी कभी बोलती नहीं है। जब आत्मा और पुद्गल दोनों का योग होता है और एक प्राणशक्ति पैदा होती है, वह प्राण-शक्ति बोलती है। एक आदमी सोचता है। आत्मा तो सोचती नहीं। आत्मा के मन नहीं होता। न पुद्गल सोचता है। जब आत्मा और शरीर दोनों मिलते हैं, प्राणशक्ति पैदा होती है,वह प्राणशक्ति सोचती है।
आत्मा भी नहीं खाता और पुद्गल भी नहीं खाता। आदमी खाता है। आदमी श्वास लेता है। आत्मा श्वास नहीं लेती, पुद्गल भी श्वास नहीं लेता। जब दोनों का योग होता है तो प्राणशक्ति के द्वारा श्वास लिया जाता है. भोजन किया जाता है। हमारा व्यक्तित्व है जीव और पुद्गल दोनों का योग। हमारा व्यक्तित्व स्वतन्त्र नहीं है।
इस दुनिया में हम अकेले नहीं हैं। बहुत बड़ा सूत्र है कि हम अकेले नहीं हैं। अचेतन भी हैं चेतन भी हैं। हमारा प्रतिपक्षी तत्त्व अचेतन उसका भी अस्तित्व है और हमारा भी अस्तित्व है। जहां अस्तित्व का प्रश्न है, जैन दर्शन ने बताया कि चेतन और अचेतन में कोई भेद नहीं है। अस्तित्व की दृष्टि से चेतन और अचेतन दोनों समान हैं। भेद कहां होता है? व्यक्तित्व कहां बनता है? जहां एक द्रव्य है चेतन और दूसरा द्रव्य है अचेतन। जिसमें चेतना है, ज्ञान है, जानने की क्षमता है, वह है चेतन, जीव। जिसमें चेतना नहीं है, जानने की योग्यता नहीं है, वह है अजीव।
वेदान्त दर्शन केवल चेतन तत्त्व को मानता है, अचेतन को वास्तविक नहीं मानता । चार्वाक दर्शन अचेतन को वास्तविक मानता है, किन्तु चेतन को वास्तविक नहीं मानता।
जैन दर्शन द्वैतवादी दर्शन है । वह चेतन और अचेतन यानी जीव और पुद्गल दोनों के अस्तित्व को स्वतन्त्र मानता है, यथार्थ मानता है। जैन दर्शन यथार्थवादी दर्शन है। हम अकेले नहीं हैं। हमारा अस्तित्व है और उसके साथ-साथ अचेतन का भी अस्तित्व है। इसलिए जैन दर्शन में अचेतन के प्रति व्यवहार करने का विवेक भी दिया गया। बड़ी महत्त्वपूर्ण
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