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जगत और ईश्वर / ४७
इसका विस्तार है। इनमें धर्मास्तिकाय, अर्धास्तिकाय, आकाश- ये तीन हमें दिखाई नहीं देते। जगत का मतलब यह नहीं कि जो दिखाई देता है, वह जगत है। न दिखाई देने वाला भी जगत है। जीव और पुद्गलये दोनों एक साथ जुड़े हुए हैं, मिले हुए हैं, इसलिए हमें दिखाई दे रहे हैं। जीव भी दिखाई देता हैं और पुद्गल भी दिखाई देता है। जीव का मूल रूप हमें दिखाई नहीं देता और पुद्गल का भी मूल रूप हमें नहीं दिखाई देता। पुद्गल का मूल रूप है परमाणु। परमाणु हमें दिखाई नहीं देता। क्योंकि वह इन्द्रियों का विषय नहीं है। वह अतीन्द्रिय विषय है, सूक्ष्म है। आत्मा का शुद्ध रूप अमूर्त है। वह हमें दिखाई नहीं देता। हम क्या हैं? हमारा व्यक्तित्व क्या है। इस जगत में जो है, वह है पुद्गल के साथ समझौता किया हुआ हमारा व्यक्तित्व। हम न तो आत्मा हैं और न पुद्गल। दोनों नहीं हैं । हम एक समझौतावादी व्यक्तित्व हैं । यह है हमारी परिभाषा।
जैन दर्शन ईश्वरवादी है और नहीं भी है। जैन दर्शन परमात्मा को स्वीकार करता है। ऐसे शद्ध आत्मा को स्वीकार करता है, जिसके साथ शरीर नहीं है, वह ईश्वर है। इस अर्थ में जैन दर्शन ईश्वरवादी है। किन्तु ईश्वर जगत का कर्ता है, इसे जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता। इस अर्थ में जैन दर्शन अनीश्वरवादी है। इस प्रकार जैन दर्शन ईश्वरवादी भी है और अनीश्वरवादी भी है, दोनों है। __हम ईश्वर भी हैं, अनीश्वरवादी भी हैं। इसलिए कि जो हमारा शरीर दिखाई दे रहा है, उस शरीर में आत्मा है और वह आत्मा है, जिसमें परमात्मा बनने की क्षमता है, योग्यता है। इसलिए हम स्वयं ईश्वर हैं। हमारे भीतर वह बीज है, जिसे बोया जाए, उर्वर भूमि हो और उचित वर्षा हो, सूर्य का प्रकाश, वायु अच्छी तरह मिले तो वह वटवृक्ष बन सकता है। हमारे भीतर चेतना का वह बीज हैं, जो परमात्मा या ईश्वर बन सकता है। किन्तु आज हम ईश्वर नहीं हैं। आज हम परमात्मा नहीं हैं। शुद्ध आत्मा भी नहीं हैं। हमारा मिला-जुला साम्राज्य है, मिला-जुला व्यक्तित्व है।
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