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४६ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
से? कहीं बाहर से कुछ लाकर बनाया या अपने भीतर से बनाया। अगर अपने भीतर से बनाया तो बनाया नहीं बल्कि विस्तार हुआ फिर तो ईश्वर का विस्तार जगत है, न कि ईश्वर की कृति जगत है । कृति नहीं, विस्तार हो गया। अगर कृति माना जाए तो बाहर से कोई मसाला लाया होगा और लाकर बनाया होगा। कुम्हार घड़ा बनाता है, तो खदान से मिट्टी लाता है, फिर घड़ा बनाता है। तो ईश्वर भी कहां से मसाला लाया, जिससे कि जगत बनाया। क्यों बनाया? प्रयोजन क्या? प्रयोजन की भी बड़ी समस्या है। आज तक भी दार्शनिक चर्चा में, प्रयोजन के बारे में कोई स्पष्ट कारण नहीं बताया जा सका कि ईश्वर ने जगत को क्यों बनाया? जो प्रयोजन बताए गए, वे ऐसे हैं कि जिन पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता। प्रयोजन का भी जटिल प्रश्न है।
इन सारी समस्याओं को ध्यान में रखकर जैन दार्शनिकों ने एक सिद्धान्त स्वीकार किया कि जगत अनादि है, अनन्त है, अकृत है। इसको किसी ने बनाया नहीं। यह बना-बनाया है। जब अकृत है तो कब का प्रश्न ही नहीं उठता। कभी पैदा ही नहीं हुआ। न कर्ता का प्रश्न, न कब का प्रश्न, न कैसे का प्रश्न। सब स्वाभाविक हैं। जगत था, है और रहेगा। जगत का मतलब हमारी पृथ्वी नहीं है। यह पृथ्वी बन सकती है और यह पृथ्वी मिट सकती है। जगत का अर्थ यह सूर्य, चन्द्रमा, खगोल नहीं है, तारे और नीहारिका नहीं है । जगत का अर्थ है मूल तत्त्व, मूल पदार्थ । मूल तत्त्व हैं दो-चेतन और अचेतन । इनका निर्माण किसी ने नहीं किया। ये मूल हैं और इन्हीं का नाम है जगत ।
जैन दार्शनिकों ने दो-तीन दृष्टिकोणों से जगत की व्याख्या की है। एक व्याख्या है द्वैतवादी व्याख्या। जीव और अजीव, चेतन और अचेतन, इसका नाम है जगत।
दसरी व्याख्या है-पंचास्तिकाय का नाम है जगत।
तीसरी व्याख्या है-छह द्रव्य का नाम है जगत। धर्मास्तिकाय, अर्धास्तिकाय, आकाश, पुद्गल, जीव-ये पांच अस्तिकाय और एक काल-ये छह द्रव्य हैं। इनका नाम है जगत। हम जो देख रहे हैं, वह
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