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दार्शनिक दृष्टिकोण / ३९
मेरे मन की भावना पूरी हो गईं। मुकुट बन रहा है। एक को शोक और दूसरे को हर्ष । तीसरे ने कहा- कोई फर्क नहीं पड़ता। चाहे कलश हो, चाहे मुकुट हो, सोना सोना है। मुझे तो जो मिलेगा, वही ठीक है।
ये तीन प्रकार की मानसिक दशाएं बनीं। अकारण नहीं बनीं, अहेतुक नहीं बनीं। तीनों के पीछे हेतु है। एक अवस्था का विनाश होता है तो शोक होता है। दूसरी अवस्था पैदा होती है तो हर्ष होता है। तीसरी अवस्था बराबर है। सोना सोना है। वह मध्यस्थ है। द्रव्य को, सचाई को देखने की दो दृष्टियां हैं। एक द्रव्य को देखने की, दूसरी परिवर्तन या पर्याय को देखने की। इन दोनों दृष्टियों से सत्य को देखा जाए तो समग्र सत्य को देखा जा सकता है।
जैन दर्शन ने इन दोनों नयों के द्वारा जगत की व्याख्या की, सत्य की व्याख्या की। इसके आधार पर सापेक्षता का विकास हुआ। पर्याय के बिना द्रव्य को नहीं जाना जा सकता और द्रव्य के बिना पर्याय को नहीं जाना जा सकता है। दोनों सापेक्ष होते हैं । वस्तु में दो प्रकार के धर्म होते है। एक अखण्ड वस्तु और एक वस्तु के खण्ड-खण्ड। अखण्ड को जानने की दृष्टि द्रव्य की दृष्टि है। खण्ड को जानने की दृष्टि पर्याय की दृष्टि है।
एक बच्चा पैदा हुआ। पांच वर्ष का हुआ, शिशु बना। नवजात से जात बना। दस वर्ष का हुआ। किशोर बना। फिर दस वर्ष का और हुआ, युवा बना। सौ वर्ष का आदमी और दस-दस वर्ष की दस अवस्थाएं। पहले दस वर्ष में जीया, दूसरे दस वर्ष में जीया, एक-एक अवस्थाएं होती गईं। अब क्या दस वर्ष के बच्चे को और सौ वर्ष के आदमी को एक ही माना जाएगा? एक नहीं माना जा सकता। बुढ़ापे में जो स्थितियां बनीं, वे बचपन में नहीं थीं। जो बचपन में थीं, वे बुढ़ापे में नहीं हैं। हम खण्डखण्ड करके देखें, टुकड़ों में देखें। एक आदमी को दस वर्ष में देखा और उसी को नब्बे वर्ष में देखते हैं तो पहचान में नहीं आएगा। जब दस वर्ष में देखा था तो केश काले थे। दांत मजबूत थे। चेहरा खिला हुआ था। जब नब्बे वर्ष में देखा तो केश सफेद हो गए या झड़ गए, दांत गिर गए।
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