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४० / जैन दर्शन के मूल सूत्र
शरीर में झुर्रियां पड़ गईं। पहचाना नहीं जा सकता कि यह वही आदमी है। यह पहचान का अन्तर इसीलिए आया कि जो दस वर्ष का था, वह अब नहीं रहा, दूसरा हो गया। पर दूसरा हो जाने पर भी हम पहचान लेंगे कि यह वही है, जिसे हमने देखा था। जिसके बारे में हमने सुना था। दीपक जलता है। लौ जलती चली जाती है। पहली लौ चली गई। समाप्त हो गई। दूसरी आई, तीसरी आई, चौथी आई। लौ बदलती रहती है । दीया एक जलता है। नदी बह रही है। पानी का पहला प्रवाह आया, चला गया। दूसरा आया और चला गया। प्रवाह नहीं टूटता। पानी बदलता चला जाता है।
आपके नाखून बढ़ते हैं। बढ़ा और काटा। फिर बढ़ा और काटा। बढ़ते जाते हैं, कटते जाते हैं। लगता यही है कि वही नाखून है। लगता है कि वही दीपशिखा है। एक समान लगता है। प्रवाह चलता चला जाता है। एक है प्रवाह को समझने की दृष्टि और एक है प्रवाह के साथ बदलती धारा की दृष्टि । ये दोनों दृष्टियां एक साथ जुड़ी हुई हैं। जैन दर्शन ने इसके आधार पर सापेक्षवाद का प्रतिपादन किया। जो व्यक्ति सापेक्षता को नहीं समझता, वह सचाई को नहीं समझ पाता। एक दार्शनिक उदाहरण इस पर बहुत महत्त्वपूर्ण घटित होता है।
राजा ने चित्रकारों को बुलाया और कहा-चित्र बनाओ। मेरा चित्र बनाओ और जो सबसे बढ़िया चित्र बनाएगा, उसे पुरस्कृत किया जाएगा। चित्रकार आए और देखा। चित्र बनाने की बात सोची। राजा परीक्षा लेता गया। परीक्षा में आखिर तीन चित्रकार ठहरे, शेष सब फेल हो गए। तीनों ने चित्र बनाए। राजा के सामने पहला चित्र आया। राज ने देखा तो कहा-चित्र तो बहुत सुन्दर बना है, पर झूठा बना है। राजा था काना। चित्रकार ने सोचा-अब काना कैसे दिखाऊं? इसलिए दोनों आंखें दिखा दी। राजा ने कहा-गलत चित्र है, झूठा है। असत्य है। मैं असत्य को पसन्द नहीं करता। दूसरा चित्र देखा। चित्र बहुत भव्य था। राजा बोलाचित्र तो ठीक है पर अर्धनग्न सत्य भी मुझे पसन्द नहीं है। उस चित्र में राजा को काना दिखाया गया था। उसे अस्वीकार कर दिया। तीसरा चित्र
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