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३८ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
द्रव्य को नहीं मानते। ये दोनों एकांगी दृष्टिकोण हैं। इस पर जैन आचार्यों ने कहा कि अगर ऐसा मानें तो हमारा व्यवहार नहीं चलेगा। हमारे व्यवहार के तीन अंग है-प्रवृत्ति, निवृत्ति और उपेक्षा (तटस्थता, मध्यस्थता)।
हमें अच्छा लगता है, उसके लिए हम प्रवृत्ति करते हैं। यानी सुख के लिए प्रवृत्ति करते हैं। दु:ख से निवृत्ति करते हैं। दुःख से दूर होना चाहते हैं। जिस व्यवहार से न सुख मिलता, न दुःख मिलता, उसमें हम तटस्थ रहते हैं, मध्यस्थ रहते हैं। हमारे व्यवहार के ये तीन अंग हैं। यह व्यवहार परिवर्तन और स्थायी तत्त्व- दोनों के आधार पर चलता है। अगर परिवर्तन न हो तो व्यवहार नहीं चलेगा। हमें सुख नहीं मिलता तो फिर हम प्रवृत्ति क्यों करें? कोई भी आदमी यह सोचे कि व्यापार तो करूं, किन्तु धन तो मिलने वाला नहीं है। तब वह व्यापार किसलिए करेगा? व्यापार करने वाला इसलिए करता है कि धन मिलेगा।
एक आचार्य ने लिखा, तीन लोग एक स्वर्णकार की दुकान पर गए। इसलिए गए कि एक आदमी को सोने के एक कलश की जरूरत थी और वह सुनार के पास था। दूसरा आदमी इसलिए गया कि सुनार के पास सोने का एक मुकुट बनवाना है। तीसरा इसलिए गया कि उसे सोना खरीदना है। तीन आदमी, तीन इच्छाएं और तीनों एक साथ गए। पहला गया और बोला- स्वर्णकारजी ! सोने का कलश चाहिए। दूसरा बोला-मुझे सोने का मुकुट चाहिए। तीसरा बोला-मुझे सोना चाहिए। कलश बना-बनाया था। किन्तु मुकुट बना हुआ नहीं था।
सोने का कलश है तो भी सोना है। मुकुट बनाए तो भी सोना है। दोनों सोना हैं। स्वर्णकार को लाभ दिखा कि मुकुट बनाऊंगा तो पैदा ज्यादा होगी। उसने कलश को गलाया और मुकुट बनाना शुरू कर दिया। सोने का कलश टूटा और मुकुट बनना शुरू हुआ। उस समय क्या हुआ कि तीन अवस्थाएं तीन जनों में हो गई। जिसे सोने का कलश चाहिए था, वह सोचने लगा कि बना-बनाया कलश था, स्वर्णकार कितनी मूर्खता कर रहा है? इस कलश को गलाकर इसका मुकुट बना रहा है। मन में शोक पैदा हो गया। दूसरा आदमी था। उसके मन में हर्ष पैदा हुआ कि देखो
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