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________________ ३० / जैन दर्शन के मूल सूत्र तीर्थंकर सर्वज्ञ थे, सर्वद्रष्टा थे। उन्होंने अपनी सर्वज्ञता और सर्वदर्शिता के आधार पर धर्म का प्रतिपादन किया। यह जैन धर्म का दूसरा लक्षण है कि वह कैवलिक है, साक्षात्द्रष्टा के द्वारा कहा हुआ है। धर्म का तीसरा लक्षण है कि वह दु:ख की मुक्ति का मार्ग है। जिस धर्म से हमारे दु:खों की मुक्ति नहीं होती, दु:खों से छुटकारा नहीं मिलता, वह बहुत मूल्यवान धर्म नहीं होता। एक ओर है संसार, बंधन और दुख। संसार का मतलब है बंधन और बंधन का मतलब है दु:ख। आदमी दुख पा रहा है । आदमी बंध रहा है और संसार की परिक्रमा कर रहा है। उस स्थिति में, उसके विपरीत जाकर जो संसार को कम करे, बंधन को काटे और दुःखों को क्षीण करे, वह धर्म हमारे लिए मूल्यवान होता है। जैन धर्म ने बंधन-मुक्ति का मार्ग दिखाया। बंधन को कैसे काटा जा सकता है, यह मार्ग बताया। उसका सूत्र है-बंधन को जानो और बंधन को तोड़ो। पहले बंधन का ज्ञान कराया और फिर बंधन को तोड़ने की बात सिखायी कि बंधन को कैसे तोड़ा जा सकता है। इसलिए जैन धर्म दुःख-मुक्ति का मार्ग है । हम बहुत प्राचीन का आग्रह नहीं करते। जो धर्म बहुत पुराना है, वह बहुत अच्छा है, ऐसा कहना पसन्द नहीं करते। जरूरी नहीं कि जो पुराना हो, वह अच्छा ही हो और जो नया हो, वह अच्छा न हो। फिर भी यह वास्तविकता है कि जैन धर्म बहुत प्राचीन है। इतिहासकाल से परे भी है। काल की अवधि बहुत छोटी मानी गई है। महाभारत को पांच हजार वर्ष पहले माना गया। उस समय जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर थे। उससे पहले और चलते चलें। काल की अवधि लम्बी होती चली जाती है। भगवान ऋषभ तक पहुंचते-पहुंचते एक सुदूर काल आता है। इतनी लम्बी काल की अवधि में, जैन धर्म में नाम और रूपों का परिवर्तन आया है, इसमें कोई संदेह नहीं है। हजारों वर्षों के बाद भाषा बदल जाती है। हजारों वर्षों के बाद नाम बदल जाते हैं। हजारों वर्षों के बाद रूप और आकार बदल जाते हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि 'जैन धर्म' - यह नाम बहुत पुराना है। जैन धर्म का तत्त्व पुराना है। यह निर्वाणवाद पुराना है। जैन धर्म का जो आधार रहा शान्ति, वह बहुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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