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जैन धर्म : प्रागैतिहासिक काल / ३१
पुराना है । आधार पुराना, तत्व पुराना, किन्तु नाम पुराना नहीं कहा जा सकता । शायद महावीर के जमाने में भी 'जैन धर्म' जैसा नाम नहीं था । भगवान महावीर के लगभग दो सौ वर्षों के बाद संभवत: 'जैन धर्म', यह नाम पड़ा। इससे पहले 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' नाम था । महावीर के समय 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' नाम था । उससे पहले नाम था, 'अर्हत धर्म', ' श्रमण धर्म', ' श्रमण परम्परा ।'
जैन साहित्य में कुछ ऐसा मिलता है कि भगवान ऋषभ को अर्हत कहा गया। भगवान पार्श्व को भी अर्हत कहा गया। महावीर को श्रमण भगवान महावीर कहा गया । उन्हें अर्हत नहीं कहा गया। यह ऐतिहासिक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण भेद है। प्राचीन तोर्थंकरों को अर्हत कहा गया। महावीर को श्रमण कहा गया। महावीर के बाद कोई तीर्थंकर नहीं हुआ । होता तो उसे जैन कहा जाता । नाम बदलते रहे । पार्श्वनाथ के समय में जो जैन मुनियों की वेशभूषा थी, वह महावीर के समय में बदल गई। इसीलिए पार्श्वनाथ और महावीर के शिष्यों का जब मिलन हुआ तो दोनों के मन में विचिकित्सा पैदा हो गई। संदेह हुआ कि यह क्या? इनकी वेशभूषा दूसरी और हमारी वेशभूषा दूसरी । यह नाम का भेद, रूप का भेद, आकार का भेद, भाषा का भेद, हजारों वर्षों के अंतराल में होता आया है । ये सब परिवर्तनशील हैं और जैन दर्शन इन सब पर्यायों को शाश्वत नहीं मानता, परिवर्तनशील मानता है। किन्तु इन परिवर्तन के बीच जो एक अपरिवर्तित तत्त्व है, वह है निर्वाणवाद, यथार्थवाद । इसमें कोई परिवर्तन नहीं आया । जिस निर्वाणवाद का भगवान ऋषभ ने प्रवर्तन किया, उसी निर्वाणवाद का भगवान महावीर ने प्रवर्तन किया । जिस आत्मानुभूति के बाद भगवान ऋषभ ने धर्म का प्रवर्तन किया, उसी आत्मानुभूति के बाद भगवान महावीर ने धर्म का प्रवर्तन किया । इस निर्वाणवादी परम्परा को आज हम जैन धर्म के नाम से पहचानते हैं और इनके प्रवर्तकों को जैन धर्म के प्रवर्तक के रूप में जानते हैं ।
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