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________________ जैन धर्म : प्रागैतिहासिक काल / २९ और प्रलोभन भी जुड़ा है । एक पदार्थवादी धारा और दूसरी निर्वाणवादी धारा । पदार्थ के साथ दो बातें जुड़ी हैं, वही बात यदि धर्म के साथ जुड़ जाए तो पदार्थ और धर्म में कोई भेदरेखा नहीं खींची जा सकती। उन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। फिर जो काम पदार्थ से होता है, वह काम धर्म से होगा और जो धर्म से होता है, वह काम पदार्थ से होगा । फिर पदार्थ से धर्म को अलग करने की कोई अपेक्षा प्रतीत नहीं होती । निर्वाणवाद का सिद्धान्त पदार्थातीत चेतना के विकास का सिद्धान्त है। जो काम पदार्थ से नहीं हो सकता, लौकिक जगत में नहीं हो सकता, वस्तु जगत में नहीं हो सकता, वह काम धर्म के द्वारा हो सकता है, चैतन्य जगत में हो सकता है। इसलिए पदार्थ जगत नीचे रह जाता है, संवेदना का जगत नीचे रह जाता है, आत्मा का जगत ऊपर चला जाता है । वह संवेदनातीत हो जाता है। जैन धर्म निर्वाणवादी धर्म है इसलिए वह सत्य है, यथार्थ है, संवेदना से ऊपर है, कल्पना से ऊपर है, स्वर्ग के सुख और नरक के भय से भी अतीत है जैन धर्म कैवलिक है। जिस व्यक्ति को केवल आत्मा का अनुभव हो चुका, उस व्यक्ति के द्वारा कहा हुआ है जैन धर्म । परोक्षज्ञानी के द्वारा कहा हुआ नहीं है। उस व्यक्ति के द्वारा कहा हुआ है जिसने समग्र सत्य का साक्षात्कार कर लिया है। आदमी सोच सकता है कि समग्रता से सत्य का साक्षात्कार करने वाला कब हुआ, कैसे हुआ । यह तर्कशास्त्र का एक प्रश्न भी हो सकता है। ऐसा प्रश्न तर्कशास्त्र में उपस्थित किया गया। उसका समाधान भी दिया गया। जैन आचार्यों ने कहा कि सर्वज्ञ होता है । दूसरे दार्शनिकों ने कहा कि सर्वज्ञ नहीं होता । बहुत सीधा सा तर्क प्रस्तुत किया गया। आप कहते हैं कि सर्वज्ञ नहीं हुआ तो यह किस आधार पर कहते हैं। क्या आप सर्वज्ञ हैं? सर्वज्ञ वह होता है, जो सब देशों को जानता है, सब कालों और सब भावों को जानता है। यदि आप सब देश, सब काल और सब भावों को नहीं जानते हैं तो आप कैसे कह सकते हैं कि कभी कोई सर्वज्ञ हुआ ही नहीं। बहुत सीधी और समझ में आने वाली बात है । जैन तार्किकों ने, दार्शनिकों ने इस बात का समर्थन किया कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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