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२८ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
को शान्ति की सबसे बड़ी जरूरत है। आज विश्व-शान्ति की बात उन राष्ट्रों को और ज्यादा अच्छी लगती है, जो दूसरे महायुद्ध की यातना को भोग चुके हैं।
इस संदर्भ में जैन धर्म को पढ़ना, जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकर को पढ़ना, उनके महान आधार शान्ति और शान्ति के संदेश को पढ़ना मानवजाति के लिए सबसे अधिक कल्याणकारी बात है। चाहे प्रागैतिहासिक काल में जाएं, ऋषभ के निकट पहुंचे और चाहे ऐतिहासिक काल में महावीर के निकट पहुंचें, दोनों की एक ही बात है। दोनों ने जिस धर्म का निरूपण किया, वह धर्म है सत्य, कैवलिक और सब दु:खों से मुक्ति देने वाला यानी दुःख-मुक्ति का मार्ग। धर्म के ये तीन लक्षण बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।
धर्म का पहला लक्षण है कि वह सत्य है। यानी यथार्थवादी है, काल्पनिक नहीं है। वह यथार्थवाद का निरूपण करने वाला है। जहां सत्य नहीं. जो धर्म कल्पना के सहारे चलता है, जिस धर्म में स्वर्ग का प्रलोभन
और नरक का भय है, वह धर्म बहुत कल्याणकारी नहीं होता। जैन धर्म निर्वाणवादी धर्म है। वह स्वर्गवादी धर्म नहीं है। भगवान महावीर के लिए कहा गया- 'निव्वाणवादी णिह णायपुत्ते'- निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र महावीर श्रेष्ठ हैं।
दो परम्पराएं थीं। एक थी स्वर्गवादी परम्परा और एक थी निर्वाणवादी या मोक्षवादी परम्परा । स्वर्गवादी परम्परा का उद्देश्य था, ऐसा काम करना, जिससे स्वर्ग मिले, सुख मिले। निर्वाणवादी परम्परा का उद्देश्य था बंधन को तोड़ना, बंधन का उच्छेद करना और सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त होकर अपने आत्म-स्वरूप को उपलब्ध हो जाना, चैतन्य को उपलब्ध हो जाना, परमात्मा पद को प्राप्त हो जाना। उसमें न नरक का भय था और न स्वर्ग का प्रलोभन। जहां भय और प्रलोभन धर्म के साथ जुडते हैं, धर्म लौकिक बन जाता है। उसकी लोकोत्तर सत्ता समाप्त हो जाती है।
पदार्थ के साथ दो बातें जुड़ी हुई हैं। उसके साथ भय भी जुड़ा है
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